9. घोटुल में जनजातीय किशोरों को पारिवारिक जीवन की शिक्षा
“ घोटुल का संदेश यह है कि युवाओं को ऐसी शिक्षा मिले जिसमें किसी भी भौतिक लाभ की तुलना में स्वतंत्रता और खुशी को अधिक महत्व दिया जाये । उनके जीवन में मित्रता, सहानुभूति, आतिथ्य और एकता की भावना का विकास हो तथा उससे भी बढ़कर मानवीय प्रेम और उसकी भौतिक अभिव्यक्ति ऐसी हो जो सुंदर, स्वच्छ और मूल्यवान हो और विशिष्ट रूप से भारतीय हो।”—व्हेरियर एल्विन
बस्तर ज़िले में गोंड जनजातीय समुदाय के अन्तर्गत मुरिया नाम की एक प्रमुख जाति ऐसी हैं जिसमें घोटुल की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित थी जो अब धीरे धीरे क्षीण होती जा रही है परन्तु अभी भी बस्तर आने वाले पर्यटक और शोधकर्ताओं की इन घोटुलों के बारे में जानने की बहुत अधिक जिज्ञासा रहती है । इस जिले में गोंड समुदाय की हलवा नाम की एक अन्य जाति भी बहुत बड़ी संख्या में है परन्तु वे घोटुल की परंपरा का पालन नहीं करते हैं। बस्तर में सैकड़ों वर्षों से घोटुल अस्तित्व में थे। सर्व प्रथम लिंगो नामक एक मुरिया नेता द्वारा घोटुल प्रारंभ किये गए जिनमें किशोर-किशोरियों में आपसी सामंजस्य स्थापित करने और आगे चलकर पारिवारिक समायोजन की उपयुक्त समझ विकसित की जाती थी। इसके साथ ही उन्हें घरेलू कामकाज सँभालने और जंगल में काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था।
इतने प्राचीन काल में घोटुल संचालित करने की प्रथा आदिम वनवासी जनजातीय लोगों में अपनी सांस्कृतिक विरासत को संतानों को हस्तांतरित करने की समझ का महत्वपूर्ण प्रमाण है । ये जनजातीय लोग घास फूस की झोपड़ियों में जंगल में बहुत दूर दूर बिखरी हुई बस्तियों में रहते थे जिनमें बहुत कम संख्या में परिवार होते थे, तो भी प्रत्येक बस्ती में किशोरों के जीवन की तैयारी के लिए घोटुल अवश्य होता था। मानव जीवन में किशोरावस्था अनेक तनावों और प्रबल इच्छाओं के कारण पर्याप्त कठिन अवस्था होती है, इस दृष्टि से मुरिया जनजाति के द्वारा घोटुल की परंपरा संचालित करना एक महत्वपूर्ण कदम था ।
किशोरावस्था में पहुँचने पर बच्चों को इन घोटुलों में खेलकूद, काम और मौखिक बातचीत के माध्यम से अपने समुदाय की परंपराओं के संबंध में शिक्षा दी जाती थी । ये घोटुल किशोर किशोरियों के लिए एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा के स्थान पर परस्पर सम्मान और सहयोग के वातावरण में कहानियों, गीतों, नृत्यों और वांछनीय आदतों को साझा करते हुए अनगिनत कौशल सीखने के केंद्र थे। क्योंकि जनजातीय समुदाय के लोगों के पास किशोरों का मार्गदर्शन करने के लिए पर्याप्त समय नहीं था और उनमें से अधिकांश लोग परिपक्व भी नहीं थे, इसलिए उन्होंने अपने बालक बालिकाओं को किशोरावस्था में भावी जीवन की तैयारी के लिए घोटुलों की स्थापना कर रखी थी ।
जब मैं आदर्श विद्यालय फरसगाँव में पदस्थ था, हम सभी व्यक्तिगत रूप से घोटुल संस्कृति के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे। इसलिए सभी स्टाफ सदस्यों ने विद्यालय से लगभग दो किलोमीटर दूर कोर्रा गांव के घोटुल को देखने का निर्णय किया। रात्रि में प्रायः उस गाँव से घोटुल के वाद्य यंत्रों की ध्वनि हमारे विद्यालय तक सुनाई देती थी परन्तु बहुत समय तक हम वहाँ गए नहीं थे। यद्यपि सप्ताह के छह दिन के लिए हम विद्यालय की समय सारणी के अनुसार शिक्षण और अन्य अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों में व्यस्त रहते थे, फिर भी हमें रविवार को थोड़ी राहत थी। उस दिन हॉस्टल वार्डन और पीईटी (खेलकूद प्रशिक्षक) को छोड़कर अन्य शिक्षक दिन के समय ड्यूटी से मुक्त रहते थे, परन्तु रात्रि में स्वाध्याय के पर्यवेक्षण और अगले दिन के लिए छात्रों के मार्गदर्शन के लिए कार्यरत रहते थे। उस दिन प्राचार्य ने स्वाध्याय के पर्यवेक्षण के हमारे कर्तव्य के स्थान पर वैकल्पिक व्यवस्था कर दी थी।
हम सायंकाल में विद्यालय से कोर्रा गाँव गये और वहाँ पहुँचकर हमने गाँव के सरपंच (मुखिया) से संपर्क किया। उन्होंने हमारी घोटुल देखने के प्रस्ताव का स्वागत किया और घोटुल के पुरुष संरक्षक ‘सिरेदार’ को बुलाकर उससे हमें घोटुल दिखाने की व्यवस्था करने के लिए कहा। हम घोटुल की महिला संरक्षक (जिसे ‘बेलोसा’ कहा जाता है) से भी मिले। कोर्रा में घोटुल पूर्णतः पुराने पारंपरिक रूप में संचालित नहीं हो रहा था क्योंकि यह गाँव राजमार्ग के पास था और उच्च वर्ग के शहरी लोग कुछ घंटों के लिए अपने मनोरंजन के लिए यहाँ आते रहते थे।इसलिए यहाँ साज सज्जा और किशोर लड़के लड़कियों की वेश भूषा में आधुनिक साधनों का उपयोग किया जाता था जबकि प्राचीन काल में तो ये पूर्णतः नग्न रहते होंगे ।
यहाँ पर मुझे ऐसा समझ में आया कि उस समय जनजातीय समाज में नग्न रहकर जीवन यापन करने के बावजूद पति-पत्नी में स्थायी सम्बन्ध बनाए रखने के मर्यादित आचरण सुनिश्चित करने लिए घोटुल स्थापित किये गये थे । इसलिए किशोरावस्था में आ जाने पर बालक बालिकाओं को घोटुल में अविवाहित रहकर पति-पत्नी के सम्बन्ध में रहकर यह निर्णय करने की पर्याप्त समय के लिए स्वतंत्रता प्रदान की जाती थी जिससे वे यहाँ से निकल कर समाज द्वारा मान्यता प्राप्त विवाहित युगल के रूप में रह सकें और भविष्य में किसी प्रकार के बलात्कार अथवा सम्बन्धों में परिवर्तन के लिए बल प्रयोग की जैसी विकृतियों की संभावना न रहे । इस प्रकार यह व्यवस्था उस काल में समाज में मर्यादित आचरण बनाए रखने की उत्तम प्रथा के रूप में प्रचलित थी। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि यहाँ के जनजातीय समुदाय में वनों में रहने वाले कबीले या वन्य प्राणियों की तरह मादा पर अधिकार के लिए वर्चस्व की लड़ाई करने की प्रवृत्ति नहीं थी और वे शांतिपूर्ण व्यवस्थित समाज के रूप में जीवन यापन कर रहे थे ।
घोटुल के उन दोनों संरक्षकों ने हमें एक दूसरे के निकट बने हुए दो बड़े बड़े हाल (कच्चे कमरों) में बनाए गए शयन कक्षों ( डोरमेट्रियों ) को दिखाया जिनमें किशोर-किशोरियाँ (लड़कियों को ‘मोटियारी’ और लड़कों को ‘चेलिक’ कहा जाता था) रात्रि में रुकते थे, ये हाल ही घोटुल थे। ये घोटुल मिट्टी की दीवारों और देशी टाइलों से ढकी छत के बने दोनों बड़े अच्छी तरह से सजाए गए शेड्स थे । इनमें अच्छी गुणवत्ता वाली पर्याप्त संख्या में पोशाकें और वाद्य यंत्र थे।
उस समय तक घोटुल के सदस्य नहीं आए थे उस अवधि में हमने सिरेदार और बेलोसा से अनेक प्रश्न किए। उन्होंने हमें बताया कि “घोटुल में लड़के और लड़कियां अविवाहित जोड़े के रूप में एक रिश्ते में रहते हैं और जोड़े एक हफ्ते में भी बदलने का फैसला कर सकते हैं । हम दोनों संरक्षक के रूप में उनमें कठोर अनुशासन बनाए रखते हैं ताकि उनमें किसी भी तरह की कटुता का कोई अवसर उपस्थित न हो । परिपक्वता और उचित समझ के बाद, जो युगल परिवार बनाने के लिए सहमत हो जाता है, वह जंगल में प्रवेश करने के स्थान पर सामान्य पैदल मार्ग में वृक्ष की ताजी कटी हुई हरी शाखा को छोड़कर जंगल में चला जाता है । यह उनके समुदाय को उनके द्वारा आपस में विवाह की सहमति बन जाने के निर्णय को बताने के संकेत के रूप में माना जाता है । तब उस युगल के माता-पिता विवाह की शर्तों पर बातचीत करते हैं । सामान्यतया या तो दूल्हा अपनी दुल्हन के घर रहने के लिए सहमत होता है और उसके माता-पिता की आय में योगदान देता है या उसके माता-पिता दुल्हन को अपने घर ले जाने के लिए जानवरों और अनाज के रूप में उसके मूल्य का भुगतान करते हैं । इस प्रकार के समझौते पर दंपति बनने से पहले ही सहमति बनाया जाना अनिवार्य है, तब ही घोटुल छोड़ने की उन्हें अनुमति मिलती है ।”
चूंकि जनजातीय समुदायों की महिलाएँ घर से बाहर जाकर सक्रिय रूप से कमाने वाली होती हैं, इसलिए विवाह समझौते में उनका मूल्य माना जाता था। पूरा गाँव उस स्थान पर विवाह का उत्सव मनाता था जहाँ विवाहित जोड़ा विवाह के बाद रहेगा।
रात में लगभग आठ बजे 12 से 17 साल के लड़के-लड़कियां घोटुल पर एकत्रित हुए। वे शेड्स के अंदर गए और उन्होंने अपने आप को आकर्षक ढंग से तैयार किया। इसके पश्चात जैसे ही वे अपने रंगबिरंगे परिधानों में बाहर आए, हमने देखा कि उन्होंने शंख (सीपी), कौड़ी (कौड़ी) और गले में चाँदी के आभूषण, सिर और कमर पर चाँदी के आभूषण पहने हुए थे। लड़कों के पास विशेष टोपियाँ थीं जिनमें भैंसों के सींग लगे हुए थे, जबकि लड़कियों की टोपियों में रंगीन रुई के छोटे-छोटे गोले लटके हुए थे ।
सर्वप्रथम उन किशोर किशोरियों ने एक साथ दो प्रकार के नृत्यों का प्रदर्शन किया । किशोरों ने गेड़ी नृत्य (स्टिल्ट्स – लगभग एक या दो फीट ऊंचाई पर बांस की छड़ियों पर लगे लकड़ी के पैडल पर खड़े होकर नृत्य) का प्रदर्शन किया और किशोरियों ने लेझिम (या शायद लोहे की ज़ंजीरों की कोई अन्य वस्तु) के साथ नृत्य प्रस्तुत किया था । लयबद्ध गति के साथ दोनों नृत्यों में अच्छी तरह से सामंजस्य था । लेझिमों और गेड़ियो के साथ लटकी हुई घंटियों की आवाजें सर्वाधिक मनोरंजक प्रतीत हो रही थीं। इसके एक घंटे बाद उन्होंने अपना पारंपरिक रीलो नृत्य प्रस्तुत किया।
उस रीलो नृत्य के लिए अपने देवी-देवताओं की पूजा करने के बाद किशोर-किशोरियों ने एक दूसरे के विपरीत क्रम में अपनी इच्छानुसार साथियों के साथ पीछे की ओर अपनी बाहों को रखते हुए कमर पकड़ कर एक श्रृंखला बनाई। फिर वे अपने घुटनों पर बंधी घंटियों की लय के साथ कदम मिला कर और कूदते हुए एक बड़े घेरे में नृत्य करते हुए चलते गए। घेरे के मध्य में कई संगति देने वाले मादर और अन्य वाद्य यंत्र बजा रहे थे जबकि नेता नर्तकों को अपने कदम या घूमने की दिशा बदलने के लिए समयबद्ध विधि से सीटी बजा रहा था।
जब हमने सिरेदार पूछा कि उन्होंने उन्हें इस नृत्य के लिए कैसे प्रशिक्षित किया, तो उन्होंने हमें बताया कि वह स्वयं रीलो का एक अच्छा कलाकार था और इसलिए उन लड़कों और लड़कियों ने नृत्य के कौशल में महारत हासिल की। उसने लोकतांत्रिक नेतृत्व की अपनी विशेषता को प्रकट करते हुए हमें बताया, “मैंने प्रत्येक नर्तक/नर्तकी को पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की है कि वह रीलो को अधिक आनंददायक और आकर्षक बनाने के लिए कोई भी विशिष्ट नृत्य शैली या विधि जिसमें वह निपुण हो सम्मिलित कर सकता है यदि वह हमारे पारंपरिक रीलों नृत्य में अच्छी तरह मिश्रित हो जाए।इसलिए वर्तमान रीलो नृत्य की शैली अपने मूल रूप में नहीं थी बल्कि इसमें रीलो की लय और ताल को बनाए रखते हुए उड़िया नृत्य की धुनों को भी शामिल किया गया था। परिवहन के आधुनिक साधनों और संचार माध्यमों के कारण उड़िया नृत्यों की बस्तर जिले में अनेक अवसरों पर प्रस्तुतियाँ होती रहती थीं तथा इस ज़िले में उड़िया गीत भी बहुत लोकप्रिय थे।
रात्रि 11.00 बजे तक कार्यक्रम का आनंद उठाने के बाद हमने घोटुल के किशोर किशोरियों, उनके दोनों संरक्षकों और ग्राम प्रधान का आभार व्यक्त किया। हम घोटुल की प्रस्तुतियों से इतने प्रभावित हुए कि हमने नृत्य संचालित करने वाले गुरुओं और किशोर किशोरियों को कुछ उपहार प्रदान किये जो हम पहले ही सोच कर ले गए थे । यद्यपि हमने ग्रामीणों से अनुरोध किया कि वे हमारे साथ विद्यालय तक आने का कष्ट न करें क्योंकि हमारे समूह के कुछ सदस्य इस रास्ते से अच्छी तरह परिचित थे और जंगली जानवरों का कोई भय नहीं था, तो भी वे हमें विद्यालय तक पहुँचाने के उपरांत अपने गाँव वापस गए ।
उस समय घोटुल संस्कृति की प्रासंगिकता के संबंध में मुरिया समुदाय में मिश्रित मत थे। उनमें से कुछ ने अपनी संस्कृति की अनूठी विशेषताओं के अस्तित्व के लिए घोटुल को जारी रखने का समर्थन किया । उन्होंने तर्क दिया, “इससे किशोर लड़के और लड़कियों को एक दूसरे के साथ अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर मिलता है ताकि वे विपरीत लिंग के समवयस्क के बारे में कोई मनोवैज्ञानिक जटिलता विकसित न कर सकें।”
दूसरी ओर शिक्षित युवकों या गायत्री परिवार जैसे धार्मिक संगठनों द्वारा शिक्षित लोगों ने घोटुल संस्कृति की तीखी आलोचना करते हुए कहा, “यह घोटुल संस्कृति किशोरों को स्कूली शिक्षा से दूर रख रही है जो आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास और तीव्र गति से विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने जनजातीय लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए शिक्षा की आवश्यकता का भी तर्क दिया।” उनकी सर्वाधिक कटु आलोचना का तर्क यह था कि भाई-बहनों की उपस्थिति में घोटुल में खुले संबंध अनैतिकता और घोर निंदा के विषय हैं ।
यद्यपि घोटुल बस्तर जिले को छोड़कर भारत में कहीं नहीं हैं और घोटुल संस्कृति को कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता परन्तु किशोरावस्था की जटिल समस्याओं को समझने की दृष्टि से किशोर किशोरियों को सदाचार की सीमा में रहकर मिलने जुलने की स्वतंत्रता और किसी भी प्रकार की समस्या पर परामर्श की सेवा उपलब्ध कराई जानी चाहिए। कठोर प्रतिबंधों और अवांछित शंकाओं के अधीन होने पर कभी-कभी किशोर या किशोरी के साथ ऐसी समस्याएँ उपस्थित हो जाती हैं जिसके कारण वह अवांछित गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं अथवा आत्महत्या की ओर बढ़ जाते हैं ।माता-पिता को सजग रहने की आवश्यकता है परन्तु उन्हें आवश्यक स्वतंत्रता और सहायता भी प्रदान की जानी चाहिए, इस अवस्था में उनके आत्म सम्मान का विशेष ध्यान रखना चाहिए और उन्हें उपयुक्त कार्यों में हाथ बँटाने और स्वयं निर्णय लेने के अवसर प्रदान करने चाहिए।
घोटुल के संदर्भ में इस लेख के प्रारंभ में दिये गये व्हेरियर एल्विन के उद्धरण के अनुसार आवासीय विद्यालयों के छात्रों को ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिए जिससे वे अपने जीवन में स्वतंत्र चिंतन, अपरिग्रह , मित्रता, सहानुभूति, आतिथ्य और एकता का महत्व देंगे। उससे भी बढ़कर उनमें मानवीय प्रेम और उसकी भौतिक अभिव्यक्ति विशिष्ट रूप से भारतीय हो। आवासीय विद्यालयों में छात्र और छात्राओं के सम्बन्ध मर्यादित होने चाहिए और उनकी किशोरावस्था में उपस्थित होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए परामर्श सेवाएँ उपलब्ध करायी जानी चाहिए। किशोरावस्था मानव जीवन में सर्वाधिक भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक संवेगों/की अवस्था होती है, इसलिए इन विद्यालयों में छात्रों को खेलकूद और सांस्कृतिक गतिविधियों के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाने चाहिए ताकि यहाँ उनका जीवन नीरस न हो जाए। गतिविधियाँ संतुष्टि का सबसे अच्छा स्रोत होती हैं और उनमें भागीदारी से शारीरिक और सामाजिक विकास तो होता ही है, इसके अतिरिक्त ये मानसिक उद्विग्नताओं को भी दूर करने में सहायक होती हैं । छात्रों को उनकी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए उपयुक्त मंच दिया जाना चाहिए और उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से संबंधित अधिक से अधिक गतिविधियों का आयोजन किया जाना चाहिए।उनको प्रशिक्षित करने के लिए नृत्य, नाटक, पौराणिक नाटक आदि के स्थानीय विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जा सकता है। विद्यालय एक लघु समाज है, अतः आवासीय विद्यालय में सुखी एवं स्नेहिल परिवार का जैसा सामाजिक वातावरण होना चाहिए।