TRUST AND HUMAN RELATIONS

मानव संबंधों में परस्पर विश्वास

“मनुष्य पर विश्वास करो और वे आपके प्रति सच्चे होंगे; उनके साथ अच्छा व्यवहार करो तो वे भी अपने व्यवहार से स्वयं को अच्छे मनुष्य के रूप में दिखाएँगे ।”—- राल्फ वाल्डो एमर्सन

परस्पर विश्वास किसी भी संबंध के लिए नींव का पत्थर होता है, चाहे वह संबंध कोई भी क्यों न हो जैसे- शिक्षक-छात्र, डॉक्टर-रोगी, पति-पत्नी, अधिकारी- कर्मचारी या ग्राहक-विक्रेता। इन सभी में विश्वास एक महत्वपूर्ण आधार होता है जो कि किसी भी संबंध को बना या बिगाड़ सकता है। विश्वास के बिना सब कुछ बेकार है, परन्तु यदि विश्वास है तो इसके द्वारा किसी भी क्षेत्र में बड़ी से बड़ी सफलता प्राप्त की जा सकती हैं। जब दो व्यक्ति या कोई समाज परस्पर सहयोग, प्रेम और कृतज्ञता की भावनाओं से जुड़ते हैं तो विश्वास का ऐसा अटूट बंधन स्थापित हो जाता है कि वे अपने साझा लक्ष्य को प्राप्त करने में आने वाली सभी विघ्न बाधाओं अथवा साधनों के अभाव को दूर करके सफलता के शिखर तक पहुँच जाते हैं ।इस प्रकार की आपसी समझ और सहमति पर आधारित सुदृढ़ संबंधों के बल पर कोई भी व्यक्ति अथवा समाज अकल्पनीय उन्नति करने में सफल हो सकता है । इसलिए जीवन में सफलता और आनंद के लिए पारस्परिक संबंधों में विश्वास का होना अत्यन्त आवश्यक है ।

सभी संबंध एक समान नहीं होते है, कुछ संबंध भावनात्मक होते हैं तो कुछ तर्कसंगत आधार पर स्थापित (कारोबारी संबंध) होते हैं । पारंपरिक रूप से शिक्षक-छात्र, डॉक्टर-रोगी, पति-पत्नी और माता-पिता एवं संतान के संबंध भावनात्मक होते हैं। इन संबंधों में सभी की अंतरात्मा में एक दूसरे के प्रति समर्पण, श्रद्धा और प्रेम का ऐसा विश्वास होता है जैसा एक भक्त का भगवान के प्रति होता है,भले ही कतिपय अवसरों पर किन्हीं कारणों से आवेश में आकर किसी एक ने दूसरे के प्रति कटु व्यवहार किया हो जिससे किसी भी पक्ष को तात्कालिक पीड़ा और असंतोष का अनुभव करना पड़ा हो ।परन्तु इन अल्पकालिक मतभेदों के कारण किसी के भी मन में एक दूसरे के प्रति श्रद्धा और विश्वास में कोई कमी नहीं आती है ।इस प्रकार के आदर्शवादी समाज में जहां एक ओर माता-पिता और गुरु को देव या भगवान माना गया है तो बालक को भी ईश्वर का रूप माना गया है, यदि पति परमेश्वर है तो तो पत्नी लक्ष्मी स्वरूपा है और डॉक्टर को भी जीवन-दाता मानकर रोगी उनके समक्ष स्वयं को समर्पित कर देता है । इस प्रकार के विश्वास का भावनात्मक बंधन इतना आनंद और स्थिरता प्रदान करता है कि इन संबंधों में संरक्षित व्यक्ति (बालक, बालिका या पत्नी) अपने कल्याण, विकास और आश्रय की चिंता से मुक्त रहकर अपने संरक्षक (माता-पिता, शिक्षक या पति) के किसी भी प्रकार के कठोर व्यवहार को बिना सोचे समझे सहन करने में भी अपना हित समझते हैं। दूसरी ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के कारण वर्तमान समय में शिक्षा के प्रसार और न्यायिक प्रावधानों के फलस्वरूप लोगों के मन में मानव मात्र के स्वाभिमान और उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाने के दोष को समझने की मानवतावादी सोच विकसित हुई है। इसलिए अब लोग समझने लगे हैं कि बालक, बालिकाओं तथा स्त्रियों के प्रति क्रूरता, अन्याय अथवा अशोभनीय व्यवहार एक दण्डनीय अपराध है।

भारत में वर्तमान युग एक संक्रमण काल से गुजर रहा है । पारिवारिक संबंध टूट रहे हैं क्योंकि एक ओर कतिपय रूढ़िवादी लोग अपनी सोच नहीं बदल रहे हैं और अपनी संकुचित मानसिकता के अनुसार नव विवाहिता द्वारा वांछित व्यवहार या रीति रिवाज का पालन नहीं किये जाने के कारण उन्हें अमानवीय पीड़ा पहुँचा रहे हैं तो दूसरी ओर शिक्षा, न्याय और स्वतंत्रता के अधिकार के प्रति जागरूक विवाहित महिलाएँ अपने प्रति अन्याय किये जाने के पूर्वाग्रह के साथ वैवाहिक जीवन में प्रवेश कर रही हैं जिससे वे अपने ससुराल पक्ष या पति की अच्छी भावना से किये गये व्यवहार में भी दोष निकालने के लिए तत्पर रहतीं हैं और उनके जीवन की पृष्ठभूमि को समझे बिना उनकी कमतर योग्यता का उपहास करतीं हैं । इस प्रकार विपरीत दिशाओं में सोच रखने के कारण नवविवाहित महिलाओं के परिवारों में एक दूसरे को समझने और सामंजस्य का अभाव रहता है जिससे इन परिवारों में परस्पर अविश्वास के कारण कलह की स्थितियाँ निर्मित हो रही हैं और वैवाहिक संबंधों के विच्छेद की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं ।

अत: आवश्यकता इस बात की है कि पुरानी और नई पीढ़ी, दोनों ही, वर्तमान आवश्यकता को समझते हुए न्याय और समानता के लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने हेतु अपनी सोच में समयानुकूल परिवर्तन लाएं। प्राचीन भारतीय धारणा के अनुसार सभी जीवों में ईश्वर का अंश है और नारी को पूज्य माना गया है। इसलिए यहाँ प्राचीन काल में स्त्री और पुरुष में भेद नहीं था । तदनुसार परंपरागत संबंधों में बिना किसी भेदभाव के परस्पर प्रेम, सहानुभूति और सहयोग के आनन्द से परिपूर्ण पारिवारिक व्यवस्था थी परन्तु कालांतर में समता के स्थान पर पुरुष को प्रधानता देकर स्त्री और उसके सम्बन्धियों को गौड़ मान लिया गया है और ये सब विकृतियाँ उपस्थित हो गई हैं।अत: आवश्यकता इस बात की है कि किसी के भी दुराग्रह के कारण पारंपरिक भारतीय परिवार व्यवस्था छिन्न भिन्न नहीं हो और भावनात्मक संबंधों के नैसर्गिक आनंद से परिपूर्ण यह व्यवस्था अपने नये रूप में वैश्विक मान्यता प्राप्त करने में सफल हो ।

वर्तमान पारिवारिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें बच्चों और महिलाओं को पर्याप्त स्वतंत्रता और स्वावलंबन की जीवन शैली अपनाने का अवसर उपलब्ध रहे। परिवार में स्त्रियों और विशेषकर कामकाजी महिलाओं की घरेलू कार्य और बच्चों के लालन पालन की ज़िम्मेदारी में यथोचित सहयोग देकर उनके स्वास्थ्य, मनोरंजन और स्वतंत्रता की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना अनिवार्य है, इसके बिना पारिवारिक संबंधों में विश्वास की भावना बनी रहना संभव नहीं है। पति-पत्नी के संबंधों में यदि दोनों एक-दूसरे के साथ भ्रमण, प्रवास, मनोरंजन आदि के लिए समय निकालते रहते हैं तो उनके मन में परस्पर प्रेम और विश्वास की भावना में अभिवृद्धि होती है। यदि वे एक दूसरे की भावनात्मक और मानसिक समस्याओं के समाधान के लिए आत्मीयता और स्वीकृति की भावना से व्यवहार करते हैं और ऐसी समस्या के निवारण हेतु सघन प्रयास करते हैं तो मानसिक समस्या से जूझ रहे पुरूष/महिला को के में सुरक्षा और आत्म विश्वास की भावना विकसित होती है जिससे इन समस्याओं का स्थायी रूप से निवारण हो जाता है ।

परिवार में सभी सदस्यों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उपलब्ध संसाधनों के अनुसार राशि व्यय करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और इसमें विवाहिता को अपने माता-पिता के परिवार से तुलना नहीं करनी चाहिए। वर्तमान भौतिकवादी युग में लड़कियों के मन में विवाह के पूर्व बहुत ऊंची आकांक्षाएं रहती हैं परन्तु उन्हें विवाह के उपरांत यथोचित समायोजन करके संbतुष्ट रहना चाहिए। वित्तीय अनुशासन किसी भी परिवार में सुख-शांति और समृद्धि के लिए आवश्यक है। परिवार में परस्पर विश्वास को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए ससुराल में विवाहिता के परिवार के प्रति सम्मान का सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए और उसी तरह विवाहिता को भी ससुराल के लोगों के प्रति सम्मान और अपनत्व की भावना से व्यवहार करना चाहिए।

माता-पिता और बालक बालिकाओं के सम्बन्धों में यह ध्यान रखा जाए कि शैशवावस्था में बच्चों के लालन-पालन में यदि प्रेम, सुरक्षा और देखरेख में कमी रह जाती है तो उनमें स्वाभिमान की भावना विकसित नहीं हो पाती है जिससे बालक/बालिकाएँ अपने जीवन में पूर्ण क्षमता के साथ विकास नहीं कर पाते हैं। परन्तु यदि बाल्यावस्था आ जाने पर भी बच्चों को अत्यधिक लाड़-प्यार, संरक्षण और नियंत्रण में रखा जाता है तो उन्हें अपनी आंतरिक क्षमताएँ और विचार प्रदर्शित करने का साहस नहीं हो पाता है जिसके कारण उनको अपनी अभिरुचि और विशिष्ट प्रतिभा से सम्बंधित क्षेत्र में विकास करने का अवसर नहीं मिल पाता है और वे जीवन पर्यंत असंतुष्ट बने रह जाते हैं। प्रायः यह भी देखा गया है कि माता-पिता अपने पुत्र पुत्रियों की क्षमताओं के परे उनको अत्यधिक ऊँचे लक्ष्य प्राप्त करने पर ज़ोर देते हैं अथवा अन्य बालक बालिकाओं से तुलना करते हैं परन्तु अनेक प्रयासों और सुविधाओं के बावजूद जब उन्हें लगातार असफलताओं का सामना करना पड़ता है तो ऐसे बालक बालिकाओं के मन में अवसाद और असुरक्षा की भावना पनप जाती है जिससे उनका सम्पूर्ण जीवन कष्टदायक हो जाता है। बालक बालिकाओं के साथ मात-पिता को खेलने, बातचीत करने और भ्रमण पर ले जाने को समय निकालना चाहिए और उनकी समस्याओं, विशेष कर किशोरावस्था की समस्याओं के समाधान में सहायता करनी चाहिए। इस प्रकार के व्यवहार से बालक बालिकाओं के मन में सुरक्षा, आत्म-सम्मान और सहयोग की भावना का विकास होता है जिससे वे मानसिक विकृतियों से मुक्त हो कर अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं का उपयोग कर पाते हैं । परिवार के बड़े लोगों को यह समझना चाहिए कि बालक बालिकाओं पर अपनी आकांक्षाओं को आरोपित न करें। उनके प्रति अत्यधिक मोह करना या उनसे उनकी क्षमता से अधिक ऊंची प्रत्याशा रखना अज्ञानता और लोभ के द्योतक हैं। बौद्ध दर्शन में ये प्रवृत्तियाँ जीवन में दु:ख का मूल मानी गई हैं ।

पारिवारिक संबंधों में प्रत्येक अवसर पर न्याय की अपेक्षा रखना अनुचित है क्योंकि परिस्थितियों और व्यक्ति की मनोदशा में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है जिससे कभी-कभी व्यक्ति असुरक्षा, भय, क्रोध, आशंकाओं आदि किसी भी संवेग के कारण ऐसा व्यवहार कर सकता है जो कि तर्कसंगत न हो अथवा पारिवारिक अपेक्षाओं के अनुरूप न हो।ऐसे अवसरों पर किसी के व्यवहार के संबंध में बिना सोचे समझे प्रतिक्रिया देना अथवा उसे दोषी ठहराया जाना अनुचित है। इसके बजाय शांति और सहानुभूतिपूर्वक उसके अवांछित व्यवहार की पृष्ठभूमि को समझते हुए संतुलित प्रत्युत्तर या सुझाव देने चाहिए और यदि गलती हुई हो तो उसके लिए यथाशीघ्र क्षमा याचना की जा सकती है परन्तु इस घटना के संबंध में किसी के भी मन में उसके प्रति असम्मान अथवा बाद में इसको उदाहरण के रूप में लेकर तर्क देना अनुचित है । अंततः अपने तो अपने होते हैं, इसलिए पारिवारिक स्वजनों की गलतियों को नजरंदाज करना श्रेयस्कर है। परन्तु ध्यान रहे कि बालक बालिकाओं की छोटी छोटी प्रारंभिक गलतियों को नजरंदाज करने पर उनमें अवांछनीय आदतें पड़ सकतीं हैं। इसलिए प्रारंभिक अवस्था में प्यार से समझाकर अथवा बिना शारीरिक दण्ड दिये कड़े शब्दों, संकेतों या कुछ समय के लिए खेल/भोजन आदि से वंचित करके अथवा अकेले छोड़ कर बालक बालिकाओं में अच्छी आदतें डालना आवश्यक है। वे जैसे जैसे बड़े होते जाएं उनकी सामर्थ्य के अनुसार उनको जिम्मेदारियां वहन करने की शिक्षा दी जानी चाहिए और उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

पारिवारिक विघटन की समस्या के समाधान के लिए यह आवश्यक है कि विवाहिता का अपने पति और उसके परिजनों से भावनात्मक जुड़ाव (संलग्नता) हो। उसके मन में यह पूर्ण रुप से विश्वास हो कि परिवार के सभी सदस्यों में उसके द्वारा व्यक्त की गई असहमति को समझने का धैर्य है और जब भी वह कोई तर्क, सुझाव या प्रस्ताव प्रस्तुत करेगी तो उसकी पृष्ठभूमि को पहचानने का उनमें विवेक है जिससे वह आश्वस्त रहे कि उसकी बात को दूसरे लोग बिना किसी तात्कालिक विरोध अथवा प्रतिक्रिया के ध्यानपूर्वक सुनेंगे । अन्य सदस्यों को भी परिवार की समस्याओं के सम्बन्ध में अपना सुझाव अथवा प्रस्ताव प्रस्तुत करने के अवसर प्रदान किये जाएं। इसके लिए सभी के मन में यह विश्वास होना आवश्यक है कि यदि किसी विषय में विवाद की स्थिति निर्मित होगी तो उसे बिना किसी को अपमानित किए अथवा उपहास किये उचित मर्यादा के साथ सुलझा लिया जायेगा और कोई भी पक्ष अपनी ज़िद पर नहीं अड़ेगा। जब परिवार में सभी लोगों को अपनी आवश्यकताओं, आशंकाओं, योजनाओं और इच्छाओं को प्रकट करने की छूट होती है तो उनमें एक दूसरे के प्रति विश्वास की भावना को बल मिलता है और इसके आधार पर आपसी संबंधों में प्रेम, अपनत्व, कृतज्ञता और सहयोग की स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं जो कि सुखी सम्पन्न परिवार का मूल हैं ।


One response to “TRUST AND HUMAN RELATIONS”

  1. Very apt write up for current generation.Everyone should read , analyse and try to incorporate the invaluable advice..
    Family and relations are the basis of our happiness and harmony in life.
    Thanks Sir for your wonderful observations and suggestions.

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