ANGER AND FAMILY RELATIONSHIP

क्रोध और पारिवारिक संबंध

क्रोध और पारिवारिक संबंध

आपके मन में क्रोध की स्थिति उस समय उत्पन्न हो जाती है जब आपको किसी के द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दुख पहुँचाया जाता है अथवा दुख पहुँचाने की संभावना प्रतीत होती है।आपको दुख की अनुभूति, आपकी इच्छा पूर्ति में बाधा उपस्थित होने के संज्ञान पर आधारित होती है।जब किसी व्यक्ति का व्यवहार आपकी इच्छा के अनुसार नहीं है अथवा आपके लिए कोई ऐसी वस्तु प्रस्तुत की जाए जो कि आपको पसन्द नहीं है तो आप इसका विरोध करेंगे और आपके मन में उस व्यक्ति या वस्तु के संबंध में क्रोध उत्पन्न हो जाएगा।जब कोई व्यक्ति अपने व्यवहार द्वारा आपके लिए भय, हानि या अपमान की स्थिति उत्पन्न कर देता है अथवा वह ऐसी स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करता प्रतीत होता है तो आपके मन में उसके प्रति क्रोध उत्पन्न हो जाएगा।इस प्रकार क्रोध आपके मन में विरोध और आक्रोश की भावना के साथ उत्पन्न होता है।

सभी धर्मों में क्रोध को सबसे अधिक अधोगामी प्रवृत्ति बताया गया है।जैन धर्म का पहला लक्षण ‘क्षमा’ है और क्षमा के लिए क्रोध के कषाय से मुक्ति पर ज़ोर दिया गया है। बौद्ध धर्म में एक सिद्धांत है- ‘लोभ-विवेक-सुख-रस’ अर्थात् इच्छाओं (लोभ) के त्याग (विवेक) से दुखों का अंत (सुख) हो जाता है और उससे आनंद (रस) की अनुभूति होती है। ईसाई धर्म के अनुसार एक उपदेश है, ‘ईश्वर की पवित्र आत्मा को कष्ट मत पहुँचाओ … सभी प्रकार की ईर्ष्या द्वेष के साथ कटुता, आक्रोश तथा क्रोध, मारपीट-झगड़े और दूसरों की निंदा से बचें (इफिसियंस 4: 30,31 )।’ इस्लाम धर्म में के अनुसार, ‘जो समृद्धि और प्रतिकूलता में (अल्लाह के मार्ग में) खर्च करते हैं, जो क्रोध को दबाते हैं, और जो मनुष्यों को क्षमा करते हैं; वास्तव में अल्लाह अल-मुहसीनून(ऐसे अच्छे काम करने वालों) से प्यार करता है (क़ुरआन:सूरह अल-ए-इमरान, आयत 133-134)।’

आगे के विवेचन से पहले, मनुष्य के व्यवहार करने की मानसिक क्रिया को समझिए। मनुष्य का व्यवहार उसके समक्ष प्रतिक्षण उपस्थित हो रहे उद्दीपनों (वस्तुओं या जीवों ) के संज्ञान के आधार पर की गयी प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करता है। इसलिए जब किसी व्यक्ति के समक्ष कोई उद्दीपन उपस्थित होता है तो उसको इंद्रियाँ ‘चेतना’ के रूप में ग्रहण कर लेतीं हैं, चेतना के बाद उसकी पहचान, श्रेणी, परिमाण आदि का निर्धारण ‘संज्ञान’ के रूप में होता है, फिर संज्ञान के द्वारा मूल्यांकन के आधार पर मनुष्य के मन में अच्छे-बुरे, सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय आदि की ‘संवेदना’ होती है और इस संवेदना के आधार पर वह ‘प्रतिक्रिया’ करता है । इस प्रकार इन चार सोपानों में पूर्ण की गई मानसिक क्रियाओं के आधार पर ही कोई मनुष्य अपना व्यवहार प्रदर्शित करता है, परन्तु क्रोध में प्रतिक्रिया की गति सबसे अधिक तीव्र और बलवती होती है। इसलिए अन्य नकारात्मक भावनाओं जैसे भय, कष्ट, चिंता आदि की तुलना में क्रोध के संवेग को रोकना अत्यंत कठिन होता है।

यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि यदि व्यक्ति चेतना के समय अर्थात् देखने, सुनने, अनुभव या अनुमान के समय ही क्रोध के उद्दीपन की अनदेखी कर दे अथवा उसे संज्ञान में ही न ले अथवा संवेदना होने पर भी उसी समय क्रोध की प्रतिक्रिया करने से बच जाए तो मन में बेचैनी अवश्य होगी परन्तु दूसरे की प्रतिक्रिया के कारण क्रोध में वृद्धि का अवसर नहीं आएगा।परन्तु यदि प्रतिक्रिया के रूप में बोल कर क्रोध प्रकट कर दिया तो उस बात का समाधान थोड़ा कठिन होगा जबकि यदि कुछ क्रिया के द्वारा क्रोध प्रकट किया तो उसका समाधान बहुत कठिन हो जायेगा। उस क्रिया से आहत व्यक्ति न्याय की दुहाई देकर आपके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने का प्रयास करेगा।इसलिए जब भी आपके मन में क्रोध उत्पन्न हो, उस समय आप अपनी मानसिक क्रिया पर ध्यान देकर यथासंभव उसके प्राकट्य से पूर्व ही समाधान कर लें और आपसी समझ स्थापित करने का प्रयास करें। कभी भी क्रोध की चिनगारी को आग के शोले बनने से पहले ही बुझा देना ही बुद्धिमानी है।

भगवद्गीता2/62 में कहा गया है- ‘…..कामात्क्रोधोऽभिजायते॥62॥अर्थात् कामनाओं की पूर्ति नहीं होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।’ मनुष्य को जीवन में आनंद के लिए मान सम्मान और अपनत्व की सबसे अधिक कामना रहती है।इसलिए परिवार में सभी लोगों में परस्पर प्रेम और सम्मान नहीं होने पर क्रोध के अवसर आना स्वाभाविक है। अत: विवाहिता और परिवार के अन्य सदस्यों को प्रारंभ से ही अपनी अपनी रूढ़िवादी छवि से निकल कर एक दूसरे के महत्व और सम्मान के लिए वर्तमान युग की आवश्यकताओं के अनुसार अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना अनिवार्य है। विवाह पूर्व लड़कियों के परिवार में खर्च करने की प्राथमिकताएँ नवीन परिवार से भिन्न हो सकती हैं और उनके मन में विवाह के उपरांत अपनी उच्च आकांक्षाओं को पूरा करने की प्रबल कामनाएँ भी हो सकती हैं परन्तु पारिवारिक सुख शांति के लिए उन्हें इस परिवार के साधनों और रहन सहन के अनुसार अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को समायोजित करना होगा, अन्यथा दिन प्रतिदिन कलह और क्रोध के अवसर उपस्थित होंगे।परिवार के आर्थिक नियोजन में स्त्रियों और विशेषकर नव विवाहिता के सुझावों को आमंत्रित करके उनके समावेश करने से परिवार में सुखद नवीनता लाई जा सकती है। यदि परिवार में कमाऊ सदस्य से उसकी आय से अधिक खर्च करने की अपेक्षाएँ की जाती हैं तो उसके मन में क्रोध उत्पन्न हो सकता हैं अथवा ये अपेक्षाओं पूरी नहीं होने पर अन्य लोगों के मन में क्रोध उत्पन्न होगा। इसलिए परिवार में सभी लोगों को अपनी अपेक्षाएँ सीमित रखना श्रेयस्कर है अन्यथा जितनी बड़ी अपेक्षाएँ रहेंगी, उनके पूरे नहीं होने पर उतना ही अधिक क्रोध उत्पन्न होगा।

श्री मद्भागवत 11:21 श्लोक 20 में कहा गया है- ‘कलेर्दुर्विषह: क्रोधस्तमस्तनुवर्तते…।।20।।- अर्थात् कलह से असहनीय क्रोध और उसके बाद अज्ञान का घोर अंधकार हो जाता है।’ अत: जब आप क्रोध में हैं तो आपके मन में दूसरे के प्रति कलह अर्थात् आक्रोश की भावना अवश्य होगी।इसके कारण आपको लगेगा कि आपके अधिकार अथवा सम्मान को ठेस पहुँचाई जा रही है, आपके प्रति विश्वासघात हो रहा है या आपके सामने वाले दूसरे व्यक्ति के हौसले बढ़ गये हैं। उसको सबक़ सिखाने अथवा अपने अधिकार और आत्म सम्मान की रक्षा के लिए आपको लगेगा कि इस समय क्रोध प्रकट करना आवश्यक है जबकि इस बात की अधिक संभावना है कि बिना सम्पूर्ण परिस्थितियों के समझे आपके द्वारा किये गए क्रोध पर दूसरे लोगों के मन में आपके प्रति नकारात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो रही हो और वे सोच रहे हों कि आपका क्रोध अनुचित, मूर्खतापूर्ण अथवा अहं की तुष्टि के लिए किया गया कार्य है। इस प्रकार क्रोध में सदैव आप और आपके सामने वाले, दोनों के मन में असंतोष की उत्पत्ति होती है। इस कारण से आप एक दूसरे के घोर विरोधी हो जाते है और जैसे भी समझ में आता है, अपनी आक्रामकता की प्रतिक्रिया करते हैं ।

यह आक्रामकता दो प्रकार से प्रदर्शित की जा सकती है ।पहले प्रकार की आक्रामकता को बाह्य रूप में देखा जा सकता है जैसे कि आप क्रोधित होने पर हिंसा द्वारा, अपशब्दों के साथ चिल्लाकर या दंडित करने का रौद्र रूप दिखाकर अपना क्रोध प्रकट कर सकते हैं अथवा रूठ कर बैठ सकते हैं। परन्तु दूसरे प्रकार की आक्रामकता आंतरिक होती है जिसमें आपके मन में तो क्रोध होता है परन्तु आप किसी प्रकार की प्रतिक्रिया दिखाये बिना अपने मन में ही असंतोष और कटुता का चिंतन करते रहते हैं और बाह्य दृष्टि से सभी कार्यों में सामान्य रूप से सहयोग और प्रेम का नाटकीय व्यवहार करते रहते हैं।

इस प्रकार अपने विरोधी के प्रति आंतरिक क्रोध करते समय आप अपने क्रोध को अंदर ही अंदर बढ़ाते रहते हैं और जब यह असहनीय हो जाता है तो आप नहीं चाहते हुए भी उसे भीषण विस्फोट के साथ प्रकट करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप तो क्रोध में आग बबूला हैं ही, उधर आपके क्रोध का शिकार हुआ व्यक्ति इस अप्रत्याशित व्यवहार से क्षुब्ध होकर अपने क्रोध को और भी अधिक भीषण रूप से प्रकट करेगा। ऐसी परिस्थिति में आप दोनों के बीच उपजे क्रोध का समाधान खोजना अत्यंत कठिन हो जाएगा क्योंकि जब इसके समाधान के लिए चर्चा होगी तो आपको अपने क्रोध के अंकुरित होने की घटनाओं का खुलासा करना पड़ेगा परन्तु इसमें पहली समस्या तो यह होगी कि आपने उन घटनाओं को उसी समय नहीं बताया था इसलिए आपको वास्तविकता को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का दोषी माना जा सकता है, दूसरे आप स्वयं भी बहुत सी बातें भूल चुके होंगे क्योंकि क्रोध के उन पीड़ादायक अनुभवों का दमन करने के कारण वे बातें आपके अवचेतन में जा चुकी होंगी।आपके अवचेतन में पड़ी हुई दमित भावनाओं की परिस्थितियों को याद करने में आप पूर्णतः असमर्थ होंगे जबकि आप दोनों की समस्या के समाधान के लिये उसके मूल कारण तक पहुँचना अनिवार्य होगा। इसलिए ध्यान रहे कि क्रोध की स्थिति में आंतरिक आक्रामकता के फलस्वरूप जो क्रोध का विस्फोट होता है उसके समाधान की प्रक्रिया बहुत कठिन और दीर्घकालिक होती है।

कभी-कभी क्रोध की उत्पत्ति उस समय भी हो जाती है जबकि किसी के द्वारा कष्ट तो पहुँचा है परन्तु उसका इरादा कष्ट पहुँचाने का नहीं था, यह किसी असावधानी अथवा ग़लतफ़हमी के कारण हो सकता है । यदि इस प्रकार की भूल को तुरंत स्पष्ट कर दिया जाए और आहत व्यक्ति किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हो तो उसके क्रोध को सरलता से शांत किया जा सकता है । इसलिए भूल करने वाले व्यक्ति को अपना स्पष्टीकरण देने और आहत व्यक्ति के कष्ट को दूर करने के उपाय में विलंब नहीं करना चाहिए ।

बाल्मीकी रामायण में प्रारंभ के श्लोकों में से एक श्लोक है— ‘क्रोध वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।..अर्थात् क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता है।’ इस श्लोक से स्पष्ट है कि क्रोध करते समय व्यक्ति को समाज या दूसरे लोगों का ध्यान नहीं रहता है। व्यवहार मनोवैज्ञानिक कार्ल रोजर्स ने मानव व्यवहार को समझने के लिये एक सूत्र दिया है, “मनुष्य विश्वसनीय होता है “ अर्थात् मनुष्य (पुरुष, स्त्री, बालक, बालिका) जो भी व्यवहार करता है वह अपनी समझ के अनुसार उपयुक्त ही करता है भले ही उसने चोरी, दुर्व्यवहार या कोई अनैतिक कार्य किया हो। इस अनुचित कार्य को करते समय उसके मन में कोई ऐसी भय, दुख या चिंता की भावना हावी थी जिसने उसकी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया था जबकि अन्य लोग जो कि उन नकारात्मक विचारों के चंगुल में नहीं है वे सामाजिक और नैतिक आधार पर वस्तुपरक मूल्यांकन करने में सफल हैं और उस व्यवहार की अनुपयुक्तता को समझ रहे हैं ।

जब आप क्रोध की अवस्था में होते हैं तो आपके मन में भय, ईर्ष्या या कष्ट आदि के नकारात्मक विचार एक प्रकार की सेंसरशिप लगा देते हैं जैसे कि युद्ध के समय एक देश अपनी पीछे हटने की सूचना पर सेंसरशिप लगा कर युद्ध में अपनी बढ़त बताता है।इसी प्रकार क्रोध में आप स्वयं को पूर्णतः निर्दोष मानकर अपने अनुचित व्यवहार के लिए दूसरे को ही ज़िम्मेदार मानते हैं। इसलिये यदि आपके सामने वाला व्यक्ति आपको ग़लत सिद्ध करने के लिए ज़ोरदार विरोध करते हुए तर्क या साक्ष्य प्रस्तुत करता है तो आप उन्हें मिथ्या अथवा कृत्रिम बता कर अस्वीकार कर देंगे और इस विवाद में आपका क्रोध और अधिक बढ़ जाएगा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि आप परस्पर विवाद बढ़ जाने के भय से दूसरे की गलती होने पर भी उसे निर्दोष मान लें। यदि ऐसा किया तो उसका साहस और भी बढ़ जाएगा। इसलिए ऐसी स्थिति से बचने के लिए आपको प्रारंभ में कुछ समय के लिए धैर्य रखना पड़ेगा। दूसरे को उसकी गलती स्वीकार करने और उसके मन की विरोध या विद्रोह की प्रवृत्ति को शांत करने के लिए प्रारंभ में कुछ समय के लिए आपको शांतिपूर्वक उसके प्रति सहानुभूति, स्वीकृति और करुणा का व्यवहार करना होगा। उसे यह समझने में सहायता करनी होगी कि उसने जो क्रोध किया है वह सोच समझ कर नहीं किया है बल्कि उसके मन में किसी प्रकार का तनाव था जिसके कारण वह परिस्थितियों को अच्छी तरह समझ नहीं सका और यह क्रोध उत्पन्न हो गया है।

आप और दूसरे दोनों को यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि आप दोनों की समस्याओं का कारण कोई दूसरा नहीं है बल्कि आप दोनों ने अपने मन में एक दूसरे के प्रति किन्ही कारणों से अविश्वास के विचारों को पनपने का अवसर दिया है जिसके कारण आप दोनों में विरोध की भावना उत्पन्न हो गई है, ये कारण आपके मन में विद्वेष, अहंकार, भय, अथवा अपमान आदि कुछ भी हो सकते हैं । यदि आप अपने विवेक का उपयोग करके धैर्यपूर्वक उन नकारात्मक विचारों का समय रहते समाधान कर लेते तो आपको क्रोध करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । यदि व्यक्ति अपने अहं और पूर्वाग्रह को छोड़कर वस्तुपरक ढंग से विचार कर व्यवहार करने का स्वभाव बना ले तो वह क्रोध से मुक्त हो कर शांति, करुणा, क्षमा आदि सद्गुणों से युक्त आनंद का जीवन व्यतीत कर सकता है और दूसरों के प्रति कटुता और अहित के विचारों से बच सकता है ।

आपको यह समझना चाहिए कि आप न तो दूसरों के विचारों को क्रोध से नियंत्रित कर सकते हैं और ना ही उनमें बदलाव ला सकते हैं।परन्तु यदि आप दूसरे के समक्ष प्रेम, सम्मान और सहानुभूति के साथ परिस्थिति के अनुकूल अपने विचार प्रकट करेंगे तो वह अधिक उत्सुकता से आपकी बातें सुनेगा और उन पर अमल करेगा।आप समझते होंगे कि क्रोध एक भावनात्मक संवेग है और उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है। परन्तु वास्तविकता यह है कि क्रोध के समय की परिस्थितियों पर नियंत्रण करना भले ही आपके हाथ में न हो परन्तु यह तो आपके हाथ में है कि आप अपनी प्रतिक्रिया कैसे प्रकट करे। अत: क्रोध के समय आपको अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए, अपने भविष्य और दूसरे के साथ अपने संबंधों की उपयोगिता पर विचार करना चाहिए।

यदि आप कहते हैं कि क्रोध पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है इसलिए आपकी अधिक क्रोध करने की आदत बन गई है तो यह केवल आपके द्वारा क्रोध पर गंभीरता पूर्वक ध्यान नहीं दिए जाने की आपकी असफलता को दर्शाता है, अन्यथा यदि आप क्रोध पर नियंत्रण करने का प्रयास करते तो आपको निश्चित रूप से पर्याप्त सफलता मिलती और आपको परिवार और समाज में आज की स्थिति से कहीं अधिक सम्मान प्राप्त होता।अपने मन में दृढ़ निश्चय के साथ प्रयास करने पर आप सजग रहकर अपने क्रोध के कारण को समझ सकते हैं और दूसरों को कष्ट पहुँचाने की भावना पर नियंत्रण कर सकते हैं । प्रारंभ में अपने जीवन को अनुशासित और व्यवस्थित करने में बहुत ध्यान रखना पड़ेगा परन्तु जब यह आदत बन जाएगी तो आपको बहुत शांति और आनंद की अनुभूति होगी ।

यदि आपका विचार अपने क्रोध को दूसरे पर प्रत्यारोपित करके स्वयं को प्रसन्न करने का है तो यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे युद्ध में पीछे हटते हुए सेनाएँ अपने पुलों को नष्ट करते हुए जाती हैं।ऐसा करने में आप अपनी सात्त्विक वृत्ति को नष्ट कर रहे हैं।दूसरी ओर यदि आप क्रोध का घूँट पी कर रह जाते हैं तो यह आपके मन पर भयानक प्रभाव डालेगा और यह भी एक प्रकार से शैतान को घर में बिठाने जैसा ही होगा।किसी भी प्रकार की भावना का दमन अपने गंभीर दीर्घकालिक प्रभाव डाले बिना नहीं रहता है।लोक लाज के कारण यदि कोई अपने किसी प्रकार के शोषण से उत्पन्न क्रोध को मन में दबाकर भूल जाता है तो भी वह दमित भावना मस्तिष्क के अवचेतन में रहकर उसके व्यवहार को प्रभावित करती रहती है। कभी-कभी शोषण का शिकार व्यक्ति अवसाद जैसे मनोरोग का शिकार भी हो सकता है जिसकी पहचान और उपचार बड़ी कठिनाई से और दीर्घकालिक होता है ।इसलिए क्रोध को बढ़ावा देना अथवा दबा देना, दोनों ही अत्यंत हानिकारक हैं ।

अत: हमें समझना चाहिए कि पारिवारिक संबंधों में क्रोध आना स्वाभाविक है परन्तु उसके कारण को विवेक पूर्वक समझना आवश्यक है और उसके समाधान के लिए मनोयोग के साथ सकारात्मक प्रयास किया जाना चाहिए, अन्यथा क्रोध के कारण उपजा विकृत स्वभाव जीवन को निश्चय ही कंटकाकीर्ण बना देगा।पति-पत्नी में एक दूसरे के प्रति क्रोध करने के अनेक अवसर आते रहते हैं और कभी-कभी तो इसका कारण बाहरी होता है जैसे यदि इनमें से एक अपने कार्य स्थल से क्रोध में आया है, उसे पदोन्नति के अवसर से वंचित कर दिया गया है या उसके बॉस ने डाँटा है तो दूसरा उसे सांत्वना देने के स्थान पर उसी को दोषी सिद्ध करने लगता है और कहता है कि तुमने मेरे द्वारा पहले ही बतायी गयी कार्रवाई नहीं की या तुम तो इसी के योग्य हो।ऐसे व्यवहार में क्रोध का बीजारोपण हो जाना स्वाभाविक है। कभी घर में बच्चों ने काम बिगड़ा है परन्तु बाहर से आने वाला घर में प्रवेश करते ही चिल्लाने लगे अथवा घर में एक के द्वारा दुर्घटनावश या अनचाहे में कोई काम बिगड़ गया है तो दूसरा उस पर अपने क्रोध का विस्फोट करने लगे तो किसको क्रोध नहीं आयेगा? एक को बाहर का काम करके घर आने में देरी हो गई, उसके बार बार बताये गये कारण से जो पति/पत्नी घर पर है वह संतुष्ट नहीं है, उसी बात को लेकर विवाद थम नहीं रहा तो हारकर वह कह दे कि इसे भूल जाओ तो उनके संबंधों में गाँठ पड़ने की बहुत संभावना है।हिन्दी के साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘क्रोध’ में लिखा है, ‘द्वेष क्रोध का अचार या मुरब्बा है’- स्पष्ट है कि यदि क्रोध मन में ही बना रहता है तो उसके कारण मन में स्थायी रूप से विद्वेष की भावना का निर्माण हो जाता है। जब किसी के मन में विद्वेष घर कर लेता है तो उसे अपने प्रतिद्वंद्वी को कष्ट पहुँचाने में आनंद आने लगता है।पति पत्नी के संबंधों में यह स्थिति उनके दाम्पत्य जीवन की सुख शांति को दिन प्रतिदिन की कलह में बदल देती है।इसलिए पति पत्नी दोनों को चाहिए कि एक ही बात को बार बार उठाने अथवा देर तक बहस करने से संबंधों में दरार पड़ने की सर्वाधिक संभावना हो जाती है।बार बार क्रोध आने से पति पत्नी एक दूसरे को सहगामी नहीं मान कर, प्रतिद्वंद्वी मानने लगते हैं और उनका रवैया कठोर रक्षात्मक हो जाता है जिससे वे अपनी ग़लतियों को सुधारने के स्थान पर छुपाने लगते हैं और दूसरे की ग़लतियों को ढूँढने में रुचि लेने लगते हैं। क्या कोई ऐसी स्थिति में सुख चैन से रह सकता है?

बच्चों के लालन पालन में यदि पति पत्नी में से कोई एक, बच्चे को गलती के लिए डाँट रहा हो तो उसी समय दूसरा उस बच्चे का पक्ष लेता है या उसे दी जा रही सीख के विपरीत कुछ कहता है तो उन दोनों में क्रोध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसका पति-पत्नी के संबंधों पर तो विपरीत प्रभाव पड़ता ही है, उससे कहीं अधिक बच्चे के मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।इसलिए बच्चों के लालन पालन और अनुशासन में पति और पत्नी दोनों में समायोजन होना चाहिए, एक ने डाँटा है तो दूसरा उस बच्चे को एकांत में प्यार दुलार से शांत करके गलती और उसके परिणाम को समझने में सहायता करे ।इस प्रकार उस बच्चे के आत्म सम्मान को लगी ठेस की भरपाई भी हो सकेगी।पति पत्नी को बच्चों के सामने तीव्र विवाद को टाल देना अच्छा है क्योंकि बच्चे अपने माता-पिता को अपना आदर्श मानते हैं और यदि वे उनके सामने ही लड़ने झगड़ने लगेंगे तो उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

पति-पत्नी के झगड़े उनकी शारीरिक या मानसिक रूप से असुरक्षा की भावना, बातचीत-व्यवहार में सरलता और खुलेपन की कमी अथवा परस्पर अविश्वास के कारण होते हैं। उनके सम्बन्धों में तनाव के अनेक कारण हो सकते हैं जैसे एक दूसरे की भावनाओं नहीं समझना, समानता के आधार पर एक दूसरे के सम्मान की परवाह नहीं करना, अपनी आवश्यकता अथवा बात को नि:संकोच स्पष्टता के साथ नहीं बताना, क्रोध के समय दूसरे की परिस्थितियों और दृष्टिकोण को बिना समझे अपने मन में कोई भी अस्पष्ट या विपरीत धारणा बना लेना अथवा दूसरे को प्रसन्न रखने के लिए अपनी भावनाओं को दबाये रखना, आदि।इसलिए पारिवारिक जीवन में पति पत्नी को विवेक, धैर्य और मानसिक संतुलन के साथ व्यवहार करना चाहिए ।
निस्संदेह पति पत्नी को कभी-कभी अपनी बात को मनवाने अथवा बच्चों की आदतें सुधारने, अनुशासित करने या शिक्षित करने के लिए क्रोध आवश्यक है।समाज में भी किसी को शोषण, अत्याचार या अन्याय से बचाने के लिए क्रोध की आवश्यकता होती है।k क्रोध के संवेग का अभिप्रेरण के रूप में उपयोग करके कतिपय व्यक्ति महान भी बन गये हैं।कभी-कभी बच्चे का क्रोधी होना उसकी ऊर्जा और लगन का प्रतीक भी हो सकता है या ज़िद्दी होना उसके दृढ़ संकल्प का प्रतीक हो सकता है। इसलिए क्रोध को दबाने के स्थान पर उसका प्रबंधन करने का प्रयास किया जाना चाहिए ।

इसलिए आवश्यक परिस्थितियों में क्रोध करना पूरी तरह अनुचित नहीं कहा जा सकता है परन्तु आप पर क्रोध हावी नहीं होना चाहिए बल्कि आप क्रोध के स्वामी बनें।किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए यदि परिवार में (बच्चों या पति/पत्नी के प्रति) आपको बाह्य रूप में क्रोध प्रकट करना अनिवार्य हो तो उस समय आपके हृदय में विश्वास, करुणा और सहयोग की भावना होनी चाहिए। यदि आप क्रोध के स्वामी बन कर अपने प्रतिद्वंद्वी के विरूद्ध साहस, बल और धैर्य के साथ संघर्ष करेंगे तो आप अपने से शक्तिशाली या साधन सम्पन्न प्रतिद्वंद्वी पर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं।


One response to “ANGER AND FAMILY RELATIONSHIP”

Leave a comment

Blog at WordPress.com.

Design a site like this with WordPress.com
Get started