KEEP AWAY FROM GREED

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भाग-(1).    साइकिल का सौदा                                                       

  “लोभ व्यक्ति की आत्मा में ज़हर घोल देता है।” — चार्ली चैपलिन )

     जब मैं सैलाना में पदस्थ था, तब कुछ अवधि के लिए मैं तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारी संघ का अध्यक्ष था। उन दिनों, मैं प्रतिदिन रात्रि भोजन के उपरांत कर्मचारी संघ के लोगों से मिलने और सामान्य चर्चा करने बापू होटल (रेस्टोरेन्ट) ज़ाया करता था। हमारी एक प्रकार की दिनचर्या सी बन गई थी कि गली में ही रहने वाले मेरे मित्र शिव कुमार दीक्षित अपने घर से निकल कर मेरे घर आते और उनके साथ हम मुख्य सड़क पर जाकर बाज़ार में एक चक्कर लगाने के बाद बापू होटल पर आ जाते और इस बीच जगह जगह पर दूसरे सदस्य साथ हो लेते थे । इस प्रकार 8-10 सदस्यों का एक समूह उस होटल पर लगभग एक घंटे के लिए मिलता था।वहां कुछ दैनिक समाचारों की चर्चा के अतिरिक्त यदि हमारे संघ की कोई महत्वपूर्ण समस्या होती तो उस पर निर्णय लेते थे । इस अवधि में हम में से कोई भी सदस्य सभी के लिए कट (आधा कप) चाय और पान मंगवा लेता था और माह के अंत में सभी अपने अपने बिल का भुगतान कर देते थे ।

      एक दिन, जब मैं होटल की ओर जाने के लिए तैयार था तो दीक्षित एक अजनबी (अपरिचित व्यक्ति) के साथ मेरे घर आए, उसके हाथ में एक नई साइकिल थी। चूंकि मैं प्रतीक्षा में बाहर खड़ा था, इसलिए घर के बाहर ही खड़े खड़े हमने बातचीत करना प्रारंभ कर दी ।

         दीक्षित बोले, “कुलश्रेष्ठ, इस बेचारे ने रतलाम से एक नई साइकिल खरीदी है परन्तु अब इसका बेटा पिछले चार दिन से गंभीर रूप से बीमार है और तत्काल उसे अस्पताल में भर्ती करने के लिए इसको रुपयों की आवश्यकता है। इसलिए इसे यह साइकिल बेचनी पड़ रही है ।आप एक साइकिल ख़रीदने की सोच भी रहे थे तो फिर इसको क्यों नहीं ले लेते? यह विल्कुल नई और अच्छी कम्पनी की साइकिल है ।”

     “क्या आप इस व्यक्ति को पहले से जानते हैं?”, मैंने दीक्षित से पूछा।

  उन्होंने उत्तर दिया, “यह आदमी कभी-कभी मुझे सैलाना में दिखाई तो दिया है परन्तु कभी इससे बात करने का अवसर नहीं आया। इसने मुझे बताया है कि ये एक भूमिहीन मजदूर हैं।”

     उनकी बात को समझ लेने का भाव प्रकट करते हुए मैंने अजनबी को सम्बोधित करके उससे पूछा, “तुम कहां रहते हो?”।

     “सर, मैं सैलाना में ‘पुरानी बस्ती’ मोहल्ले में रहता हूं, और अनंत सेन जो कि दीक्षित सर के मकान मालिक हैं, मुझे अच्छी तरह से जानते हैं,” उसने तुरंत उत्तर दिया।

        “अच्छा, तुम इस साइकिल के कितने रूपये लोगे ?”,  मैंने पूछा।

         “सर, मुझे अपने बेटे के उपचार के लिए पैसे की बड़ी आवश्यकता है, इसलिए मैं इसे किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार हूं। बस, मैं तो यह चाहता हूँ कि इसको बेचकर तुरंत जो भी नक़द राशि मिल जाएगी उससे बच्चे के उपचार की व्यवस्था करूंगा।आप जैसे लोग ही नक़द राशि दे सकते हैं इसलिए आपके पास आया हूँ ।”, अजनबी ने हताश स्वर में कहा।

     परन्तु जब मैंने साइकिल की कीमत बताने पर जोर दिया तो उसने केवल ₹200/-  की मांग की। मैं उस नई हीरो साइकिल का मूल्य ₹200/-  सुनकर हैरान था क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार इसका मूल्य कहीं अधिक होना चाहिए था। मैंने सैलाना में हीरो साइकिल की दुकान पर ठीक उसी प्रकार की साइकिल का मूल्य पूछा था । दुकानदार ने बताया था कि बिना कुछ अतिरिक्त सामान लगाए उस प्रकार की साइकिल का मूल्य ₹350/-  होगा। मुझे यह अनुभव हुआ कि वह अजनबी एक निर्धन व्यक्ति था और अपने बेटे के उपचार में असहाय स्थिति में था, इसलिए वह अपनी नई साइकिल को बहुत कम मूल्य पर बेचने के लिए तैयार था, यहां तक कि वह एक अच्छी राशि की हानि भी सहन करने के लिए तैयार था।

    उसे इतनी बड़ी हानि पहुंचा कर उस साइकिल को खरीदने का लालच, मुझे एक प्रकार का अनैतिक कार्य प्रतीत हुआ। मैंने सोचा कि इतने कम मूल्य पर उसकी साइकिल ख़रीदने में एक निर्धन व्यक्ति की असहाय स्थिति का लाभ उठाना पाप होगा। इसलिए मैंने वह साइकिल ₹300/-  में खरीदने का प्रस्ताव रखा। मैंने दीक्षित को बता दिया कि बाज़ार में नई साइकिल ₹350/-  में मिल रही है और यह भी बिल्कुल नई है, इसलिए ₹300/-  से कम मूल्य देना ठीक नहीं होगा ।

     दीक्षित ने भी साइकिल के मूल्य का मेरा प्रस्ताव मान लिया परन्तु उन्होंने कहा, “यह मूल्य तो उपयुक्त है परन्तु रात्रि के समय पैसे का लेन-देन शुभ नहीं है और आज शनिवार भी है। हम सभी जानते हैं कि शनिवार के दिन लोहे की कोई वस्तु घर में लाना अशुभ माना जाता है फिर कुलश्रेष्ठ के पिताजी भी साथ में रहते हैं इसलिए आज इस साइकिल के घर में जाने पर वे बहुत रुष्ट होंगे ।”

    यह कहकर उन्होंने अजनबी को समझा दिया और कहा, “तुम्हारी साइकिल का सौदा निश्चित हो गया है, अभी तुम अपने घर जाकर बच्चे को उपचार के लिए ले जाने की तैयारी कर लो और कल प्रातःकाल में इनके घर पर साइकिल देकर ₹300/- ले जाना ।”

      इस प्रकार वह आदमी चला गया और हम दोनों बापू होटल के लिए चल दिए। रास्ते में दीक्षित ने मुझसे कहा, “आज के युग में कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु के क्रय करने में विक्रेता द्वारा मांगे गए मूल्य से अधिक नहीं देना चाहेगा परन्तु आपने अधिक मूल्य देकर बड़ा नेक काम किया है ।”

      मैंने कहा, “लोभ से तो मैं भी मुक्त नहीं हूँ परन्तु शायद मेरी अंतरात्मा की आवाज़ बलवती रही जिसने मुझे लोभ करने से रोक दिया ।मैं समझता हूँ कि जब भी व्यक्ति के सामने कोई व्यक्ति या वस्तु आती है तो सबसे पहले उसके मन में लोभ, मोह, अहंकार आदि बुराइयां (विकार) ही आती हैं परन्तु यदि किसी व्यक्ति की अधिक से अधिक सत्कर्म करने की प्रवृत्ति बन जाती है तो उसकी आत्मा में सत्य, प्रेम, करुणा के भाव अधिक पुष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार के आत्मबल से व्यक्ति के मन पर बुराइयां हावी नहीं हो पातीं हैं जिससे वह विकारों से बच जाता है।मेरे मन में अपने लाभ के स्थान पर उस अजनबी के प्रति करुणा और न्याय का विचार प्रबल था , इसलिए मैं लोभ के पाप से बच गया ।”

    “कुलश्रेष्ठ, आपने ठीक कहा है, मनुष्य को सत्कर्म करने में विलंब नहीं करना चाहिए परन्तु यदि मन में कोई बुराई का विचार आए तो उसके संबंध में गंभीरता से विचार करना चाहिए और अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर उससे बचना चाहिए।” दीक्षित ने कहा ।


भाग-(2).     एक अपरिचित की सहायता

        “करुणा का अर्थ केवल दूसरे के दर्द को महसूस करना ही नहीं, बल्कि उसे दूर करने में मदद करने के लिए तत्पर भी रहना चाहिए।”—डेनियल गोलेमैन

साइकिल के सौदे के बाद बातचीत करते हुए जब हम दोनों (मैं और दीक्षित) सड़क पर पहुंचे तो ध्यान आया कि आज तो शनिवार है, सप्ताहांत का दिन होने के कारण संघ के लोग तो मिलेंगे नहीं, इसलिए हम बापू होटल पर रुकने के स्थान पर सैलाना के प्रवेश द्वार की ओर चल दिये। उस सुंदर प्रवेश द्वार से पहले सैलाना का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था। यहां हमने देखा कि लोगों की भीड़ एकत्रित थी क्योंकि किसी गंभीर सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति को वहां लाया गया था ।

     हम भीड़ के पास पहुंचे और दीक्षित ने गेट के पास खड़े एक व्यक्ति से पूछा, “क्या हुआ? यहाँ भीड़ क्यों एकत्रित है
      “मोटरसाइकिल पर सवार एक अधेड़ व्यक्ति घुमावदार रोड के किसी मोड़ पर गंभीर दुर्घटना का शिकार हो गया है।उसे कोई राहगीर अपनी जीप में लेकर आया है और वह अस्पताल में है”, व्यक्ति ने उत्तर दिया।

     यह सुनकर हम स्वास्थ्य केन्द्र के अंदर गए और डॉ. नागर से मिले जिनका छोटा भाई महेन्द्र नागर हमारे विद्यालय का छात्र था। हमने उनसे घायल व्यक्ति की स्थिति और पहचान के बारे में पूछा।

    “उसकी चोटें गंभीर हैं और वह बोलने में असमर्थ है। परन्तु पुलिस को उसकी जेब में रखे पर्स से उसका पता मिल गया है । वह सैलाना से लगभग 35 किलोमीटर दूर पिपलोदा उपनगर का निवासी कोई पाटीदार है।” उन्होंने हमें बताया।

    उन्होंने आगे कहा, “यहाँ की पुलिस, पिपलोदा थाने के संपर्क में है, परन्तु इस व्यक्ति की स्थिति बहुत गंभीर है और यदि इसे शीघ्रातिशीघ्र रतलाम के जिला अस्पताल नहीं ले जाया गया तो इसका बचना मुश्किल है ।”

   स्थिति की गंभीरता को समझते हुए हमने उस व्यक्ति को रतलाम ले जाने की व्यवस्था करने पर विचार किया।वहां पर उसके परिवार का कोई नहीं था।उसकी जान बचाने की सोचकर हमने ही उसे रतलाम ले जाने की ज़िम्मेदारी लेने का निर्णय लिया। हमने पुलिस स्टेशन अधिकारी और स्वास्थ्य केन्द्र के प्रभारी डॉक्टर से परामर्श किया। उन्होंने हमारे प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त करते हुए सभी काग़ज़ात तैयार करने और अस्पताल की एम्बुलेंस तथा नर्स को भेजने की तैयारी प्रारंभ कर दी ।

     इस समय दीक्षित ने स्वयं उसके साथ में जाने और मुझे घर पर ही रहने के लिए कहा क्योंकि मेरे बच्चे बहुत छोटे थे और मेरे पिता वृद्ध एवं रोगग्रस्त थे। वह अपने घर से आवश्यक वस्तुओं का एक छोटा सा बैग लेने और अपने मकान मालिक से अपनी अनुपस्थिति में परिवार की देखभाल करने का अनुरोध करने के लिए गए। रोगी के साथ जाने में असमर्थ, मैं अपने घर आ गया और वहां से ₹1000/- लेकर स्वास्थ्य केन्द्र पहुंच गया। वहां पर जैसे ही दीक्षित अपने घर से तैयार होकर आए , मैंने उन्हें ज़िला अस्पताल, रतलाम में उस रोगी के उपचार में व्यय की व्यवस्था करने के लिए वे रुपये दे दिए।

     इस अवधि में एंबुलेंस की तैयारी हो चुकी थी और घायल व्यक्ति को स्ट्रेचर पर लाया गया। उसकी स्थिति के अनुसार देखभाल करने, ड्रिप और दवाओं आदि से उपचार करते रहने के लिए स्वास्थ्य केन्द्र द्वारा नियुक्त नर्स तैयार थी। गंभीर रोगी को एम्बुलेंस में चढ़ाया गया और उसके साथ जाने को नर्स के अतिरिक्त दीक्षित और एक पुलिसमैन था, उनको बिठाकर भेजा गया।

     यद्यपि मैंने साइकिल और एक ट्रांजिस्टर खरीदने के लिए विशेष रूप से ये रुपये बचाए थे क्योंकि मुझे  विद्यालय में शीघ्र पहुंचने के लिए साइकिल और पिताजी को समाचार सुनने के लिए ट्रांज़िस्टर की बहुत आवश्यकता थी, परन्तु मुझे बहुत अच्छा लग रहा था कि मैंने अपने मित्र दीक्षित की नेक काम में देरी नहीं करने की बात का पालन किया था ।

    दूसरे दिन प्रातःकाल में वह साइकिल बेचने वाला नहीं आया और दीक्षित दोपहर में अपने घर लौट आए थे। सायंकाल में उन्होंने मुझे बताया कि आधी रात तक घायल व्यक्ति की पत्नी और बेटा रतलाम के अस्पताल में आ गए थे।उसकी हालत में थोड़ा सुधार हुआ था और वह अपने परिजनों को उत्तर दे रहा था। प्रात: 10.30 बजे तक वह आपात कक्ष से जनरल वार्ड में स्थानांतरित हो गया था। उसके बाद परिजनों के द्वारा स्वयं सब कुछ संभाल लेने के आश्वासन के बाद वे अस्पताल से सैलाना के लिए प्रस्थान किए थे ।

    उन्होंने मुझे खर्च का ब्योरा भी दिया, उन्होंने कहा, “दवाइयों आदि पर ₹700/- उनके द्वारा व्यय किए गए हैं । परन्तु मैं इसमें ₹200/- अपनी ओर से योगदान के रूप में मानकर आपको ₹500/- वापस कर रहा हूँ।”

  “भाई दीक्षित जी, आपको ₹200/- अपनी ओर से योगदान करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आपने पहले ही एक बहुत बड़ी सेवा की है।आपका रात्रि के समय अपना घर छोड़कर एक अपरिचित के लिए तुरंत चले जाना ही आपकी ओर से बहुत बड़ा योगदान है” मैंने उनको ₹200/- वापस करने का आग्रह करते हुए कहा।

   परन्तु उन्होंने दृढ़ता से मना कर दिया और कहा, “नहीं, यह मेरा छोटा सा योगदान है। वास्तव में, उस व्यक्ति के परिवार के सदस्य के रूप में उसकी पत्नी और उसका 15 साल का बेटा आया था। इसलिए, मैं उनसे व्यय का भुगतान करने के लिए नहीं कह सका और ना ही उन्होंने अपनी ओर से रुपये देने की बात कही थी।”

   तब मैंने उनसे कहा, “यद्यपि किसी अपरिचित की सहायता को निःस्वार्थ सेवा कहा जाता है, तो भी हमारे द्वारा अपरिचित के लिए की गई सेवा की यादें, हमें जीवन पर्यन्त समय समय पर आनंद से रोमांचित करती रहती हैं ।वैसा आनंद तो किसी भी प्रकार के धन या पुरस्कार से कई गुना उच्च कोटि का होता है।”

   मेरे इस कथन से प्रभावित होकर दीक्षित ने यह सुझाव दिया कि यदि कभी वह घायल व्यक्ति स्वस्थ होने  के बाद हमारे व्यय की राशि लौटाने आएगा तो हम उससे अपना पैसा वापस नही लेंगे। इस प्रकार के निर्णय के लिए मैंने भी अपनी सहमति व्यक्त कर दी थी ।

     उधर दो चार दिन बाद ही हमें ज्ञात हुआ कि वह साइकिल बेचने वाला अपरिचित व्यक्ति एक चोर था, उसने अनेक नई साइकिलें चुराई थीं और लोगों को धोखे से उन्हें बेच दिया था। उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और खरीदारों को थाने और अदालत के चक्कर काटने की स्थिति बन गई थी। इसके अतिरिक्त उन खरीदारों के धन  की बर्बादी हुई, वह अलग, क्योंकि उनकी साइकिलें तो ज़ब्त हो गईं थीं । चूंकि कि मैं अजनबी से साइकिल खरीदने में शामिल नहीं था, मेरे रुपये भी बच गए और पुलिस का झंझट भी नहीं पड़ा। संभवतः दीक्षित का उससे कहना कि ‘बच्चे को लेकर जाते समय साइकिल देकर रुपये ले जाना’ चोर के मन में संदेह का आधार बन गया था क्योंकि उसने सोचा होगा कि उसका बच्चे के अस्वस्थ होने का बहाना पकड़ा जा सकता है, इसलिए वह दूसरे दिन साइकिल देने नहीं आया ।

      रतलाम पहुँचाने की घटना के लगभग 3 माह बाद वह घायल व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ हो गया था। वह हमारे विद्यालय में आया और उसने आपातकालीन उपचार पर खर्च किए गए हमारे पैसे वापस करने का आग्रह किया । उसका नाम मांगी लाल पाटीदार था। उसे देखकर प्रतीत हो रहा था कि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उसने हमें बताया था कि उसके दो बेटे हैं , बड़ा नौवीं कक्षा में और छोटा सातवीं कक्षा में पढ़ता है।

    उसके आग्रह के बावजूद, हमने पैसे वापस नहीं लिए, बल्कि उसे सलाह दी कि यह पैसा या इससे भी अधिक पैसा वह किसी अन्य व्यक्ति की सहायता के लिए खर्च करे। इस प्रकार हमारे पैसे का मूल्य और अधिक बढ़ जायेगा।

       इस घटना को मैं भूल गया था और सैलाना से विभिन्न स्थानों पर स्थानांतरण के कारण लगभग 15 वर्ष  के बाद जब मैं वर्ष 1989 में जवाहर नवोदय विद्यालय, हटा में प्राचार्य के रूप में सेवारत था, तब एक नेत्र शिविर के आयोजन के लिए एक बैठक हुई। स्थानीय स्टेट बैंक आफ इंडिया के शाखा प्रबंधक ने बैठक में भाग लेने के लिए अपनी ओर से एक युवा प्रोबेशनर (परिवीक्षाधीन) अधिकारी को इसमें भाग लेने के लिए भेजा था । उसका नाम दिनेश पाटीदार था और वह कृषि ऋण योजना के विस्तार से संबंधित प्रशिक्षण के लिए शाखा में संलग्न था। उस नेत्र शिविर की बैठक में दिनेश पाटीदार ने अपनी जेब से ₹2000/- के योगदान की घोषणा की। इतनी बड़ी राशि का योगदान देखकर सभा में उपस्थित सभी सदस्य हैरान रह गए थे ।

         अपने संबोधन में दिनेश पाटीदार ने लगभग 15 साल पहले अपने पिता की दुर्घटना की कहानी दर्शकों को सुनाई और सैलाना के दो शिक्षकों द्वारा प्रदान की गई सहायता और देखभाल की प्रशंसा की थी । उसने इस बात पर जोर दिया कि उन्होंने मेरे घायल पिता को सैलाना से रतलाम ले जाने और अस्पताल में खर्च किए गए लगभग एक हजार रुपये भी वापस नहीं लिए थे । मेरे पिता उन दयालु शिक्षकों के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने हमेशा हम दोनों भाइयों को उनके नेक कामों से शिक्षा लेने के लिए कहा था ।

लेखक:- शिवेंद्र कुलश्रेष्ठ। Email – ‘sk.kulshreshtha@gmail.com’
                                                 


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