AN OLD STORY TO EVOKE FEELINGS OF JUSTICE TO SCHEDULED CASTES

निर्दोष बालक को दंडित करने की एक सत्य घटना

“हमें एक दूसरे पर दोषारोपण करना बंद करना होगा, चाहे कोई ऊंचा हो या नीचा, हमें समानता की भावना रखनी होगी और छूआछूत को मिटाना है। हमें ब्रिटिश शासन से पहले की स्वराज की परिस्थितियां फिर से स्थापित करनी हैं। हमको एक ही पिता के बच्चों की तरह रहना हैं।”—सरदार वल्लभ भाई पटेल

मेरा बचपन उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास पचावर नाम के एक गांव में व्यतीत हुआ। इस गांव के बाहरी इलाके में 15-20 सफाईकर्मियों के परिवारों की छोटी सी बस्ती थी। इन परिवारों के पुरुष और महिला दोनों ही पूरे गांव की गलियों और घरों के आसपास झाडू लगाते थे और कचरे को गांव के बाहरी इलाके में ले जाकर खाद के गड्ढों में डालते थे। उन दिनों हर घर में शौचालय नहीं होते थे, इसलिए पुरुष खेतों में जाते थे और महिलाएं पियाबाशा (जंगली पौधे) की झाड़ियों में शौच के लिए जाती थीं। परन्तु व्यापारियों, ब्राह्मणों और हमारे परिवार की महिलाएं पर्दा प्रथा का पालन करती थीं। ऐसे परिवारों के लिए महिलाओं के उपयोग के लिए उनके घरों की चारदीवारी के कोने पर शौचालय बने रहते थे। इसलिए सफाई कर्मी इनसे मानव अपशिष्ट टोकरी में एकत्र करके उस टोकरी को अपने सिर पर रखकर खाद के गड्ढे में डालने के लिए ले जाते थे।
ये सफाईकर्मी गाँव की स्वच्छता बनाए रखने के लिए आवश्यक थे, लेकिन उनके श्रम के बदले उन्हें केवल रोटी अथवा घर का बचा हुआ थोड़ा सा भोजन दिया जाता था, जिसे सफाई का काम पूरा करने के बाद अपराह्न में महिला सफाईकर्मी घर-घर जाकर इकट्ठा करती थीं। अपने स्वामियों के परिवारों में विवाह, जन्म और मृत्यु के अवसरों पर आयोजित होने वाली दावतों में मेहमानों के खाने के बाद छोड़ दिये गए भोजन को ये लोग पत्तलों (पत्ते की प्लेट) से एकत्रित करके अपने घर ले जाते थे और उसे सूखाकर बाद में भोजन के लिए उपयोग में लाते थे।
इन सफाईकर्मियों के पास कोई कृषि भूमि नहीं थी और सूअरों के अतिरिक्त कोई अन्य पालतू जानवर भी नहीं थे। ये सुअर अपने भोजन के लिए खाद के गड्ढों या पीयाबाशों के क्षेत्र में घूमते रहते थे । अपवाद के रूप में हमारे सफ़ाईकर्मी बुद्धू और चेत्या के संयुक्त परिवार ने बकरियां पाल रखी थीं। दोनों भाइयों में बड़े बुद्धू ने आजादी के पहले मथुरा में एक अंग्रेज अधिकारी के घर पर काम किया था। इसलिए, वे जब भी हमारे यहां काम पर आते, तो सदैव उन अंग्रेज के द्वारा दिए गए कपड़े पहनकर आते थे।‌‌ वे मुझसे बड़े प्यार और आदर के साथ बातचीत करते थे। इसलिए मैं उन्हें बहुत पसंद करता था। वे मेरे माता-पिता से नि:संकोच बात कर पाते थे जबकि अन्य सफाईकर्मियों को अपने मालिकों से बात करने का कम ही साहस होता था।
छोटी उम्र से ही हमें कुछ जिम्मेदारियां दी जाती थीं, जैसे हम अपने पालतू जानवरों के लिए खेत से चारा काट कर लाते थे और मशीन पर कूटकर उसे तैयार करते थे। पढ़ाई के दिनों में माध्यमिक विद्यालय, सोंख खेड़ा जाते समय, मैं अपने खेत में हंसिया छुपाकर जाता था और स्कूल से लौटते समय वहां से चारा काटकर लाता था। जिन खेतों से हम चारा काटकर लाते थे, उनके किनारे पर नहर से आने वाले सिंचाई के पानी के लिए एक नाली थी। इस नाली के दोनों तरफ मिट्टी की मेंढ़ के किनारे थे। इन दोनों किनारों की मेंढ़ें गर्मी के मौसम में भी हरी घास से भरी रहती थीं, जबकि अन्य जगहों पर घास मिलना कठिन होता था। सभी खेतों के बीच में लगभग दो फुट चौड़ी एक मेंढ़ होती थी। ये सभी मेंढ़ें केवल खेतों की सीमांकन रेखाएं थीं और इनका उपयोग, लोग अपने खेतों में जाने के लिए एक सामान्य मार्ग के रूप में करते थे। इन सभी मेंढ़ों की घास प्रायः भूमिहीन पशुपालक काट कर ले जाते थे।
पप्पू, जिसकी उम्र लगभग 15 वर्ष थी, बुद्धू का पुत्र था। एक बार सन् 1954 में रविवार के दिन जब मैं अपने खेत से चारा काट रहा था, तो वह नाली के दूसरे किनारे पर, जहां हमारे घर के सामने रहने वाले गुलाब सिंह का खेत था, कुछ दूरी पर मेंढ़ की घास काट रहा था। राजपाल सिंह, जो कि मेरी ही तरह बारह-तेरह वर्ष का था, गुलाब सिंह का बेटा था।
उसको कोई काम तो था नहीं, सो, घूमते घूमते पप्पू की ओर चला गया और वहां जाकर उसके ऊपर चिल्लाया और उसे धमकी दी, ‘पप्पू, तू मेरे खेत की मेंड़ से घास नहीं काट सकता, यहां से तुरन्त चला जा, नहीं तो मैं तुझे मारूंगा।’
इस अचानक भड़के उसके क्रोध को देखते हुए पप्पू ने विनम्रतापूर्वक अनुरोध किया, ‘भैया, हमारे पास अपना कोई खेत तो है नहीं जिसमें चारा उगा सकें, इसलिए जहाँ से भी थोड़ी घास मिल जाती है ‌वहां से काटकर अपनी बकरियों के लिए ले जाते हैं। सो, कृपया, मुझे यहां से घास काट लेने दो ।’
लेकिन राजपाल ने उसकी एक नहीं सुनी। वह बड़े क्रोध में आकर चिल्लाया, ‘अब तू जाता है कि नहीं, चल भाग, नहीं तो मैं तेरे पेट में ऐसी लात मारूंगा कि नानी याद आ जायेगी ।’
इन कठोर शब्दों को सुनकर पप्पू खड़ा हो गया और उसने चेतावनी दी, ‘भैया, तुम यहां से चले जाओ, मुझे अपना काम करने दो, वरना यदि तुमने मुझ पर हाथ उठाया, तो मैं चुपचाप सहन नहीं करूंगा। मैं भी बदले में तुम्हें मारूंगा।’
राजपाल की पप्पू के विरुद्ध आगे कुछ करने की हिम्मत नहीं हुई और वह दौड़ता हुआ दूसरे खेत में काम कर रहे अपने पिता गुलाब सिंह के पास गया और उनसे शिकायत की, ‘पिताजी, इस नींच जाति के लड़के पप्पू को देखो, वह हमारी मेंढ़ से घास काट रहा था और मेरे मना करने पर उसने वहां से जाने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, उसकी हिम्मत देखो कि उसने मुझे पीटने की धमकी भी दी थी ।’
‘अच्छा तो उसकी ये हिम्मत!’ कहते हुए गुलाब सिंह ने पेड़ की एक टहनी काटी और उसका डंडा बना कर अपने बेटे को देते हुए कहा, ‘ले, यह डंडा लेकर जा और चुपचाप उस लड़के के पीछे जाकर जितने बार हो सके उसे पूरी शक्ति से मारना। तुम्हें उससे डरने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा हूँ ।
मुझे यह सुनकर बहुत बुरा लगा क्योंकि एक पिता अपने बेटे को छोटी सी बात पर निर्धन निम्न जाति के बालक पर अत्याचार करने का निर्देश दे रहा था। उस बालक से बिना कुछ पूछताछ किए, वह अपने बेटे को निर्दयता से मारने के लिए कह रहा था। यह एक प्रकार से असहाय निम्न जाति के लोगों के साथ क्रूरता के लिए बचपन से ही प्रशिक्षण देने जैसा था।
पप्पू अपने काम में व्यस्त था, इसलिए उसे इस योजना का पता नहीं था और राजपाल ने ठीक वैसा ही किया जैसा उसके पिता ने उसे बताया था। अचानक हुए हमले के बाद पप्पू के पीठ, हाथ और चेहरे पर बुरी तरह से चोटें आई। गुलाब सिंह उसकी ओर दौड़ रहे थे, उस पर चिल्ला रहे थे, गालियां दे रहे थे और उच्च जाति के लड़के के साथ झगड़ा करने वाले सफाईकर्मी समुदाय को चेतावनी दे रहे थे। पप्पू को लगा कि उसकी जान को खतरा है, इसलिए वह घास वहीं छोड़कर भाग गया। वह दर्द से कराह रहा था और रो रहा था, उसके कुछ घावों से खून निकल रहा था।
जैसे ही पप्पू घर पहुंचा, सभी सफाईकर्मियों के परिवार डर गए क्योंकि उन्हें पता चल गया कि गुलाब सिंह गुस्से में हैं और वह उनके पूरे समुदाय को धमका रहे हैं। वे जानते थे कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि गलती किसकी थी या पहले ही उनका बेटा पप्पू को निर्दयतापूर्वक पीट चुका है, फिर भी उन पर हमला किया जा सकता था, उन्हें पीटा जा सकता था, उनको मौत के घाट उतारा जा सकता था, या उनकी झोपड़ियों को जलाया जा सकता था। उन्हें विश्वास था कि उनके लिए कोई न्याय नहीं मिलेगा, उनके विरुद्ध किए गए अपराध के लिए कोई भी दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाएगी, बल्कि इसके विपरीत होगा। इसलिए सफाईकर्मियों के सभी परिवारों ने मिलकर गुलाब सिंह के घर जाने और सामूहिक रूप से बुद्धू के पुत्र की मनगढ़ंत गलती के लिए क्षमा याचना करने का फैसला किया।
चारा लेकर घर आने के बाद मैंने अपने परिवार को खेतों में हुई घटना के बारे में विस्तार से बताया। लेकिन मेरे परिवार ने मुझे घटना की वास्तविक प्रकृति, कि पप्पू की कोई गलती नहीं थी, के बारे में चुप रहने की सलाह दी। पूरे गाँव के लोग हमारे परिवार का सम्मान करते थे परन्तु जब उस घटना की बात आएगी तो सवर्णों के खिलाफ किसी को कुछ भी बर्दाश्त नहीं होगा ।सही हो या गलत, हमें ऊंची जाति के लोगों का समर्थन करना था क्योंकि वे शक्तिशाली थे और गांव में बहुसंख्यक थे।
कुछ देर बाद बुद्धू और चेत्या‌ के साथ सभी सफाईकर्मियों के परिवार गुलाब सिंह के घर के सामने एकत्रित हो गए। इसे देख कर लगभग पूरे गाँव के लोगों की भीड़ वहाँ आ गई। सभी सफाईकर्मी भयभीत होकर गुलाल सिंह के सामने गिड़गिड़ा रहे थे। वे अपने जीवन की भीख माँग रहे थे। परन्तु गुलाब सिंह चिल्ला रहे थे, उन्हें दोष दे रहे थे और गालियां दे रहे थे, ‘तुम लोगों ने अपनी सारी हदें पार कर दी हैं। तुम्हारे बेटे की मेरे बेटे को धमकाने की हिम्मत कैसे हुई? एक तो उसने मेरे बेटे का कहना नहीं माना और फिर उसके साथ झगड़ा करने को तैयार हो गया ।हम क्या अब तुम्हारी ग़ुलामी करेंगे ?’ कई ऊंची जाति के लोग भी गुलाब सिंह के आरोपों का समर्थन कर रहे थे।
बुद्धू और चेत्या बार बार सिर झुकाकर क्षमा मांग रहे थे और कह रहे थे, ‘हम दोनों को जो भी समझो सजा दे दो, हमें मार डालो, परन्तु कृपा करके हमारे समाज के लोगों को माफ कर दो। पप्पू के जख्मों की वजह से हम उसे अपने साथ नहीं ला सके। लेकिन हम उसे कल सुबह ला सकते हैं और तुम उसे जैसा उचित समझो, दंड दे सकते हो।’
उपरोक्त हंगामा काफी समय तक चलता रहा और अंत में उच्च वर्ग के लोगों ने अपनी चिल्लाने, चेतावनियों और डराने-धमकाने की भड़ास निकालने के बाद बुद्धू और चेत्या के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके अनुसार पप्पू को दण्ड दिया जाना था। इसलिए यह तय हुआ कि पप्पू को अगले दिन राजपाल द्वारा दंडित किया जाएगा। राजपाल मेरा दोस्त था, मैंने उससे इस संबंध में चर्चा की और उसे समझाया कि वह गरीब और मासूम सफाई कर्मचारी के लड़के पर दया करे। वह तो पहले ही स्वयं को दोषी अनुभव कर रहा था कि उसके कारण छोटी सी बात पर बड़ों ने अनावश्यक इतना तूल दे दिया। उसके मन में पप्पू को अत्यधिक चोट पहुँचाने का दुख भी था । इसलिए हमने पप्पू को केवल लोगों को दिखाने के लिए नाम मात्र की सजा दिए जाने का निर्णय कर लिया था।
अगले दिन जब पप्पू, गुलाब सिंह के घर के सामने आया तो वह शरीर पर लगे घावों के कारण कराह रहा था और उसका सिर झुका हुआ था। वह अपनी गलती के लिए दया और क्षमा की प्रार्थना कर रहा था। पप्पू को दण्ड दिये जाने का आनन्द उठाने के लिए उस दिन भी बहुत से लोग एकत्रित हो गए थे । उसी समय राजपाल घर से बैलों को हाँकने वाला चाबुक लेकर बाहर आया और पप्पू के पास गया। उसने दिखावे के लिए पप्पू को दो तीन चाबुक मारे और उसके बाद जनता को बताया कि उसने अपना बदला ले लिया है। इसके बाद भी लोगों ने पप्पू को भविष्य में ऐसी ग़लती नही करने की शपथ लेने के बाद ही जाने को कहा। अतः उसने तीन बार शपथ ली कि वह अपने जीवन में फिर कभी ऐसी गलती नहीं करेगा, तभी उच्च जाति के लोगों को संतोष हुआ।
वह एक ऐसा समय था जब कोई भी जातिवाद का विरोध करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। उच्च जाति के लोग गरीब निचली जाति के लोगों के साथ किसी भी तरह से दुर्व्यवहार कर सकते थे। वे उन्हें गाली दे सकते थे, डरा सकते थे, मार सकते थे या बिना कुछ दिये उनकी सेवाओं का शोषण कर सकते थे। उनकी सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं थे। उन परिस्थितियों का तो अब लगभग अंत हो गया है और अधिकतर लोगों में न्याय और समानता का व्यवहार करने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है। फिर भी कभी कभी निम्न जाति के लोगों के साथ रूढ़िवादी उच्च जाति के लोग ऐसी वीभत्स या हिंसक घटनाऐं कर देते हैं जो कि लोकतांत्रिक और सभ्य समाज के लिए कलंक सिद्ध हो रही हैं।
अनुसूचित जातियों में से कुछ निम्न जातियां अभी भी प्रगति करने के लिए सक्रिय नहीं हैं। वे अपने बच्चों को विद्यालयों में नहीं भेज रहे हैं। वे अपने जीवन को बदलने, शासकीय सुविधाओं का लाभ उठाने या प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेकर वैकल्पिक नौकरियों अथवा बेहतर व्यावसायिक अवसरों के लिए सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता का लाभ उठाने के प्रति जागरूक नहीं हैं। लंबे समय तक उत्पीड़न के कारण पैदा हुए भय और आत्म-संदेह के कारण उनके मन से निराशा और असमर्थता के विचार दूर नहीं हो पा रहे हैं। इसी मानसिकता के कारण इन जातियों के लोग आलस्य, निष्क्रियता और शराब के नशे में अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। इस मानसिकता को ‘अभाव की मानसिकता’ कहा जाता है जो कि समस्या को समझने, तार्किकता के साथ निर्णय लेने और लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए कार्रवाई करने की उनकी क्षमता को सीमित कर देती है।
सामान्यतः इन समुदायों की दयनीय स्थिति को उनके आलस्य, अक्षमता और नशे की प्रवृत्ति को माना जाता है। इसके विपरीत विभाजन के समय पाकिस्तान से पलायन करके आने वाले लोगों की उल्लेखनीय प्रगति का उदाहरण देकर यह कह दिया जाता है कि इन पिछड़े समुदायों की स्थिति कभी नहीं सुधर सकती, इनके जीन्स में ही बुद्धि और कार्य कुशलता की कमी है। इस तरह के तर्क के साथ कुछ उच्च वर्ग के लोग उन्हें दी जा रही सुविधाओं को अपने ऊपर बोझ मानकर उनका विरोध भी करते देखे गए हैं। परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि उत्पीड़ित समुदायों की दयनीय स्थिति के लिए उनके प्रति सदियों से किया गया अन्याय है । जहां तक पाकिस्तान से आने वाले लोगों की बात है, वे अपना सब कुछ लुट जाने के बाद अवश्य आये थे परन्तु वे ‘प्रचुरता की मानसिकता’ के साथ उल्लासित थे। उन्होंने विभाजन से पहले समृद्ध जीवन का आनंद लिया था, वे पैसे कमाने की रणनीति जानते थे और उन्हें अपनी क्षमता पर भरोसा था। इसी ‘प्रचुरता की मानसिकता’ के कारण कठिनाइयों को सहन करने के उपरांत भी उनका मनोबल बढ़ा हुआ था। वे स्वयं को यहाँ के लोगों के समान या उनसे अधिक योग्य समझते थे। इसलिए उन्होंने कड़ा परिश्रम किया और यहाँ पर मिले साधनों का भरपूर उपयोग करके व्यवसायों में उन्नति की और उच्च पदों को प्राप्त करने में सफल रहे ।
इसलिए पाठक ध्यान दें कि केवल आर्थिक सहायता या आरक्षण दलित जातियों के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि उनके खिलाफ सदियों पुराने पूर्वाग्रहों और उन्हें अपमानित करने की मानसिकता को उच्च जातियों के मन से दूर किया जाना चाहिए। इन निचली जातियों को भारतीय समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए उच्च जातियों द्वारा उनके लिए स्वीकृति-भाव, बंधुत्व और मान्यता की भावनाओं को अपनाया जाना चाहिए। इन जातियों की ‘अभाव की मानसिकता’ को ‘प्रचुरता की मानसिकता’ में परिवर्तित करने के लिए यह आवश्यक है कि अन्य समुदायों के लोग उनके साथ उचित व्यवहार करें। उन्हें नौकरी के अवसरों, रहने की सुविधाओं और उदार वित्तीय सहायता के विशेष प्रावधानों के साथ विधिवत समर्थन दिया जाना चाहिए। अच्छी तरह से प्रशिक्षित और समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता इन लोगों को उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने में परामर्श दे सकते हैं।
यह सच है कि कानूनों को सही भावना से लागू नहीं किया जा रहा है और उच्च जाति के लोग अनुसूचित जाति के लोगों के दुख को समझने में असमर्थ रहे हैं जिससे उनकी स्थित में वांछित गति से सुधार नहीं हो सका है। परन्तु इससे भी बढ़कर स्वयं अनुसूचित जातियों के कुछ लोगों की ‘अभाव की मानसिकता’ से जनित उच्च जातियों के प्रति दोषारोपण, उत्तेजना और ईर्ष्या की भावनाएं, उन्हें अपनी पूर्ण क्षमता से उन्नति करने या अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में सफलता प्राप्त करने में बाधक हो रहीं हैं। इस प्रकार की भावनाओं से विभिन्न समुदायों के मध्य वैमनस्य और दूरियाँ बढ़ती है जिससे विकास की राह में बाधा उत्पन्न होती है। विकास की दौड़ में असमानता की स्थिति में‌ हिंसक विरोध करने पर कमजोर वर्ग को ही अधिक हानि होती है ।
दूसरी ओर, यह बड़े संतोष की बात है कि अनुसूचित जाति के अनेक लोगों ने शिक्षा के अवसरों, कानून के लाभ और सरकार द्वारा सहायता के प्रावधानों का सफलतापूर्वक उपयोग किया है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है। यह दर्शाता है कि स्वयं के प्रयत्नों, दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास और दूरदर्शिता के बिना किसी भी समुदाय का कोई व्यक्ति अपने कष्टों और दयनीय परिस्थितियों से ऊपर उठकर उल्लेखनीय उन्नति नहीं कर सकता है।
निम्न जातियों के कष्टों के निवारण के लिए उच्च जातियों में से जब कोई व्यक्ति उनके प्रति अन्याय और शोषण के विरूद्ध आवाज़ उठाने का साहस करता है, तो उसका अपना परिवार या रिश्तेदार उसे आगे बढ़ने से रोकने का हर संभव प्रयास करते हैं। वे उसे अपनी कठोर आंतरिक मान्यताओं से विचलित होने का दोषी मानकर इतना प्रताड़ित करते हैं कि वह अपने प्रियजनों और पड़ोसियों का शत्रु मान लिया जाता है और इस प्रकार के बहिष्कार और अपमान उसके लिए भय और चिंता के पहाड़ बन जाते हैं । इसलिए समाज को बदलने में प्रारंभ में असीमित कठिनाइयाँ आती हैं ।
पारंपरिक सामाजिक संरचना (ट्रडिशनल सोशल आर्डर) समाज में निष्पक्षता का समर्थन करना कठिन बना देती है। परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शिक्षा के प्रसार के कारण बड़ी संख्या में उच्च जातियों के लोग निम्न जाति के लोगों को उनकी गरीबी, पीड़ा और अन्याय को दूर करने के लिए आगे आ रहे हैं, और इसके परिणामस्वरूप प्रगति हो रही है। समाज में समरसता बढ़ रही है परन्तु और प्रगति करनी है, यदि नहीं, तो हमारे लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की सफलता हमेशा खतरे में रहेगी।


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